Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक मिथ्यानृतमित्यस्तु लघुत्वादिति चेन्न, विपरीतार्थमात्रसंप्रत्ययप्रसंगात् । न च विपरीतार्थमात्रमनृतमिष्यते सर्वथैकांतविपरीतस्यानेकात्मनोऽर्थस्यानृतत्वप्रसंगात् । एतेन मिथ्याभिधानमनृतमित्यपि निराकृतमतिव्यापित्वात् । यदि पुनरसदेव मिथ्येति व्याख्यानमाश्रीयते तदा यथावस्थितमस्तु प्रतिपत्तिगौरवानवतरणात् ॥ तदेवं
__ यहां कोई कटाक्ष कर रहा है कि “मिथ्या अनृतं” मिथ्याभाषण करना झूठ नाम का पाप है इतना ही सूत्र बनाया जाओ क्योंकि इसमें अर्थकृत और परिमाणकृत लाघव गुण है। जहां तक होय सूत्र छोटा ही होना चाहिये, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि यों तो केवल विपरीत अर्थ की ही समीचीन प्रतीति हो जाने का प्रसंग आजायेगा किन्तु केवल विपरीत अर्थ को ही झूठ बोलना नहीं इष्ट किया गया है कारण कि अतिव्याप्ति दोष आजावेगा। देखिये सर्वथा एकांतों से विपरीत हो रहे अनेकांत आत्मक अर्थ को भी अनृतपने का प्रसंग आता है जो कि इष्ट नहीं है। अर्थात् क्वचित् परोपकार, हितोपदेश, अहिंसा, को पुष्ट कर रहा मिथ्यावाद भी सत्य समझा जाता है। कदाचित् नित्यैकांतवादी कदाग्रही वादी अनेकांत पर झुकाने के लिये अनित्यैकांत पक्ष को पुष्ट करना पड़ता है। सर्वदा पढ़ने में ही शारीरिक और मानसिक योगों का व्यय कर रहे विद्यार्थी के लिये खेलना, विश्राम लेना, विनोद करना आदि का विपरीत उपदेश भी दिया जाता है। अतः मिथ्या या विपरीत कथन सर्वथा झूठ नहीं कहा जा सकता है । इस उक्त कथन करके मिथ्या भाषणं करना अनृत है इस मन्तव्य का भी निराकरण कर दिया गया है क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष आता है। क्वचित् सत्य में भी मिथ्या कथन पाया जाता है, जनपदसत्य, सम्मतिसत्य आदि दस प्रकार के सत्यों में क्वचित् मिथ्याभिधान देखा जाता है अतः अलक्ष्य में लक्षण के चले जाने से "मिथ्याभिधानं" यह अनृत का लक्षण करना अतिव्याप्ति दोषग्रस्त है । यदि फिर मिथ्याशब्द का प्रसिद्ध अर्थ छोड़ते हुये पारिभाषिक अर्थ कर यों व्याख्यान करने का आश्रय
जायगा कि अप्रशस्त ही मिथ्या कहा जाता है। तब तो जिस प्रकार आम्नाय अनुसार सूत्रकार महाराज ने कहा है वही तदवस्थ रहा आओ ऐसा करने से प्रतिपत्ति में गौरव हो जाने का अवतार नहीं है अर्थात् मिथ्या कह कर उसका सांकेतिक अर्थ असत् यानी अप्रशस्त किया जाय इसकी अपेक्षा तो असत् शब्द का ही प्रथमतः उच्चारण करना बढ़िया है। तिस कारण इस प्रकार होने पर जो व्यवस्था हुई उसको वार्तिकों द्वारा सुनिये।
अप्रशस्तमसद्बोध्यमभिधानं यतस्य तत् । प्रमत्तस्यानृतं नान्यस्येत्याडः सत्यवादिनः ॥१॥ तेन स्वपरसंतापकारणं येद्वचोगिनां । यथादृष्टार्थमप्यत्र तदसत्यं विभाव्यते ॥२॥ मिथ्यार्थमपि हिंसानिषेधे वचनं मतं ।
सत्यं तत्सत्सु साधुत्वादहिंसाव्रतशुद्धिदं ॥३॥ असत् शब्द का अर्थ अप्रशस्त समझना चाहिये, प्रमाद युक्त जीव के जो इस अप्रशस्त अर्थ का कथन करना है वह अनृत है अन्य जो प्रमाद रहित है उस अप्रमत्त जीव का अप्रशस्त कथन करना