Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक की खाज मिटाने के अवलंब हो रहे संयमी साधु के शरीरको रति पूर्वक गाढ आलिंगन कर रही रमणी के ही मैथुन पाप होवेगा। सुदर्शन सेठ का मदोन्मत्त कामग्रस्त रानी ने आलिंगन किया एतावता सेठ को रागी नहीं कहा जा सकता है वह रानी ही व्यभिचारिणी समझी गयी । अतः अंगना से आलिंगित हो रहे मुनि को अणुमात्र पाप नहीं लगता है। यदि यहां कोई यों आक्षेप करे कि पुनः उस दशा में मुनि महाराज के लिये प्रायश्चित्त करने का उपदेश क्यों दिया गया है ? जब मुनि को पाप ही नहीं लगता तो अंगना के चुपट जाने पर उनको प्रायश्चित्त नहीं लेना चाहिये था। यों कहने पर तो तो ग्रन्थकार कहते हैं कि वह प्रायश्चित्त का उपदेश भी प्रसंग की निवृत्ति कराने के लिये है । प्रायश्चित्त को देने वाले आचार्य उन संयमी जितेन्द्रिय मुनि को उपदेश देते हैं कि तुम ऐसे प्रसंग को टाल दो जहां कि स्त्रियां आकर बाधा दे सकें । तुमको इसका प्रायश्चित्त देकर आगे के लिए सूचित किया जाता है कि स्त्री-पशु, पक्षी जहां उपद्रव मचावें ऐसे प्रसंगों का निवारण कर दिया करो। प्रायः देखा जाता है कि सुन्दर स्त्रियों को देखकर जैसे कामी पुरुष अनेक कुचेष्टायें करते हैं उसी प्रकार अभिरूप पुरुषों को देखकर कमनीय कामिनियां उनको उपद्रत करती है । बलभद्र, कामदेव, चक्रवती आदिक यदि मुनि भी हो जात हैं तो भी वे अत्यधिक सुन्दर जचते हैं। वसुदेव की कथा का स्मरण कीजिये । ऐसी दशा में चलचित्त अंगनायें उनको अपनी मनःकामना पूर्ण करने के लिये डिगाती हैं किन्तु “किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित्" अडिग्ग मुनि आत्मध्यान से अविभाग प्रतिच्छेदमात्र भी नहीं चलायमान होते हैं फिर भी ऐसे ऐसे प्रसंगों का निवारण करने के लिये मुनि को प्रायश्चित्त लेने का उपदेश है। विश्वास पूर्वक आलोकन हाव, विलास, शृंगार, प्रार्थना आदि में भी उस प्रायश्चित्त विधान के उपदेश करने का कोई विरोध नहीं है अर्थात् किसी संयमी को स्त्रियां, यदि विश्वस्त आलोकन करें या शृंगार प्रार्थना के लिये काम चेष्टा पूर्वक अवलोकन करें तो ऐसी दशा में भी मुनि को ऐसे प्रसंगों की निवृत्ति के लिये प्रायश्चित्त लेने का उपदेश है। यहां यह भी विशेष कह देना है कि वीर्य संसर्ग या अस्पर्श से स्त्रियों की आत्मा में नैमित्तिक कुत्सित परिणाम अवश्य उपज जाते हैं अतः बलात्कार दशा में स्त्रियों के रिरंसा नहीं होते हुये भी स्त्रियों के विषय में उक्त सिद्धान्त लागू नहीं किया जा सकता है।
कः पुनः परिग्रह इत्याह;
हिसा आदिक चार पापों के विशेष लक्षण समझ लिये हैं। अब पांचवें परिग्रह का लक्षण फिर क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवत ने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
मर्जा परिग्रहः ॥१७॥ चेतन, अचेतन बहिरंग परिग्रहों में और राग आदि अन्तरंग परिग्रहों में जो मूर्छा यानी गृद्धिविशेष है वह परिग्रह है।
बाह्याभ्यन्तरोपधिसंरक्षणादिव्यापूतिमूर्छा । वातपित्तश्लेष्मविकारस्येति चेन्न, विशेषितत्वात, तस्याः सकलसंगरहितेऽपि यतौ प्रसंगात् । बाह्यस्यापरिग्रहत्वप्रसंग इति चेन्न, आध्यात्मिकप्रधानत्वात् मूर्छाकारणत्वाबाह्यस्य मूर्छाव्यपदेशात् ।
गाय, भैंस, घोड़ा आदि बहिरंग चेतन परिग्रह और वस्त्र, मोती, भूषण, गृह, आदि अचेतन बहिरंग परिग्रह तथा राग आदिक अन्तरंग परिग्रहों के समीचीन रक्षण, उपार्जन या राग आदि अनुसार