Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक जब कि पिच्छिका का ग्रहण सूक्ष्ममूर्छा को कारण मानकर हुआ बताया गया है और क्षोणमोह या जीवन्मुक्तों के भी पूर्व भवसम्बन्धी मोह के उदय अनुसार हुये कर्मबन्ध करके शरीरों का परिग्रह स्वीकार किया गया है तब औदारिक शरीर की स्थिति के लिये षष्ठ गुणस्थानवर्ती मुनि का कवलाहार ग्रहण करना भला शरीर में हो रही मूर्छा को कारण मान कर हुआ यों यति के मोह सिद्ध करने में वह आहार ग्रहण समर्थ है यह बात समुचित ही मानी जायगी। अर्थात् मुनि जो आहार लेते हैं वह भी मूर्छा को कारण मान कर हुआ परिग्रह ही समझा जायगा। "मुर्छाकरणक्षम" पाठ होने पर मुनि का आहार ग्रहण करना मूर्छा का कारण और कार्य हो जाने से अच्छा परिग्रह समझा जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों रत्नों की समीचीन आराधना के कारण हो रहे ही आहार ग्रहण को जिनागम में स्वीकार किया गया है हां उस रत्नत्रय की विराधना के हेतु हो रहे उस अनिष्ट, अनुपसेव्य, अभक्ष्य, आदि आहार का ग्रहण करना तो अभीष्ट नहीं किया गया है । मन, वचन, काय, सम्बन्धी प्रत्येक के कृत, कारित, अनुमोदना अनुसार हुई नौ कोटियों से विशुद्ध हो रहे आहार को भैक्ष्य शुद्धिज्ञापक आगम की अनुकूलता से ग्रहण कर रहा मुनि कदाचित् भी रत्नत्रय की विराधना को करने वाला नहीं है । स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, के लिये शरीर उपयोगी है और शरीर में बल की प्राप्ति आहार पूर्वक है अतः दोषों और अन्तरायों को टालकर मुनि महाराज दिन में एक बार लघुभोजन करते हैं। अतः तत्त्वज्ञान के समान आहार का ग्रहण करना कोई मुर्छा का कार्य या मूर्छा का कारण नहीं है । अत्यल्प मर्छा गणनीय नहीं है परमनिर्ग्रन्थपन की उपासना करने वाले तो आहार को भी छोड़ देते हैं। संन्यास मरण कर रहा श्रावक ही आहार और शरीर को परिग्रह मानकर छोड़ देता है । वस्त्र, पात्र आदि का ग्रहण करना पक्का परिग्रह है तिस कारण सिद्ध हुआ कि किसी भी मोही जीव या श्रावक या मुनि के किसी भी पदार्थ का ग्रहण करना मुर्छा के बिना नहीं
ता है। इस प्रकार सम्पूर्ण परिग्रह प्रमादी जीव के ही सम्भवते हैं। जैसे कि अब्रह्म यानी कुशील क्रिया प्रमादी जीव के ही सम्भवती है। यों प्रमाद योग पूर्वक हुई मूर्छा परिग्रह है यह सूत्रकार का तात्पर्य निरवद्य है।
अथैतेभ्यो हिंसादिभ्यो विरतिव्रतमिति निश्चितं तदभिसंबंधात्तु यो व्रती स कीदृश इत्याह;
___ हिंसा आदि के लक्षण अनन्तर इन हिंसा आदिकों से विरति हो जाना व्रत है। यों सातवें अध्याय के आदि सूत्र में कहे गये व्रत के लक्षण का निश्चय किया जा चुका है। अब आत्मा में उन व्रतों का चारों ओर सम्बन्ध हो जाने से जो व्रती हो जाता है वह व्रती जीव तो कैसा है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को व्यक्त कर रहे हैं ।
निःशल्यो व्रती॥१८॥ मायाशल्य, मिथ्यादर्शन शल्य और निदान शल्य इन तीनों से रहित हो रहा जो व्रतों से युक्त है वह व्रती है। अर्थात शल्यरहितपन और व्रतों के सम्बन्ध से व्रती होता है मात्र शल्यरहि नहीं है चौथे गुणस्थान वाला जीव कदाचित् निष्कपट, निर्निदान अवस्था प्राप्त हो जाने पर भी व्रती नहीं हो जाता है इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी केवल बाह्य व्रतों के धार लेने से व्रती नहीं समझ लिया जायगा ॥
अनेकधा प्राणिगणशरणाच्छल्यं बाधाकरत्वादुपचारसिद्धिः । त्रिविधं माया, निदान,