Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 625
________________ ६०४ श्लोक-वार्तिक दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमारणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ॥२१॥ .. १ दिग्विरति नाम के व्रत से सम्पन्न, २ देशविरति नामक व्रत से युक्त, ३ अनर्थदण्ड विरति नामक व्रत से सहित ४, सामायिक व्रत से आलीढ, ५ प्रोषधोपवास से परिपूर्ण, ६ उपभोगपरिभोग परिमाणव्रत से उपचित, ७ और अतिथिसंविभागवत से आढथ भी अगारी होना चाहिये । सूत्रोक्त समुच्चायक च शब्द करके आगे कही जाने वाली सल्लेखना से भी युक्तगृही होना चाहिये । अर्थात् चार दिशायें चार विदिशाएँ, ऊर्ध्व, अधः यो दश दिशाओं में प्रसिद्ध हो रहे हिमालय, विन्ध्यपर्वत महानदी आदि की मर्यादा करउससे बाहर मरण पर्यन्त जाने, मगाने अदि का नियम ग्रहण करना दिग्विरति व्रत कहा जाता है । नियत क्षेत्र से बाहर स्थित हो रहे त्रस और स्थावर सभी जीवीं की विराधना का अभाव हो जाने से गृहस्थ भी महाव्रती के समान आचरण करता है । उस दिग्विरति के ही भीतर गाँव, नदी, खेत, घर आदि प्रदेशों की सीमा तक ही गमन, प्रषण, व्यापार, आदि का परिमित काल तक नियम करना देशविरति व्रत है । इन व्रतों से परिणामों में सन्तोष होता है और लोभ का निराकरण होता है । उपकार न होते हुये पाँच प्रकार के अनर्थदण्डों का परित्याग करना अनर्थ दण्डविरति व्रत है। सम्पूर्ण जीवों में साम्यभाव रखते हुये शुभभावनाओं को बढ़ाकर आर्त, रौद्र, ध्यान का परित्याग करना अथवा बहिर्भावों का परित्याग कर रागद्वेष नहीं करते हुये पुरुषार्थ पूर्वक आत्मीय भावों में ध्यान युक्त बने रहना सामायिक व्रत है । सामायिक करते समय अणु और स्थूल हिंसा आदिक कदाचारों की निवृत्ति हो जाने से गृहस्थ भी उपचार से महाव्रती हो जाता है । प्रत्याख्यानावरण का उदय है अतः दिगम्बर दीक्षा ग्रहण, केशलोंच, सातमें गुणस्थान का ध्यान नहीं होने से मुख्य महाव्रत नहीं कहे जा सकते हैं। प्रत्येक महीने की दो अष्टमी, दो चौदश, को साम्यभावों की दृढता के लिये अन्न पान खाद्य लेह्य स्वरूप चार प्रकार के आहार का परित्याग करना प्रोषधोपवास है। सम्पूर्ण पापक्रियाय आरम्भ, शरीर संस्कार पूजन प्रकरणातिरिक्तस्नान, गन्धमाल्य, भूषण, आदि का त्याग करता हुआ पवित्र प्रदेश, या मुनिवास, चैत्यालय के निकट स्थल, स्वकीय प्रोषधोपवास गृह, प्रभृति में ठहर रहा धर्मकथा को सुनकर आत्म चिन्तन कर रहा एकाग्र मन हो कर उपवास करने वाला श्रावक प्रोषधोपवास व्रती है। भोजन, पान, माला, आदिक उपभोग, और वस्त्र, गृह, वाहन, डेरा आदिक परिभोगों में परिमाण करना भोग परिभोग परिमाण है । जैन सिद्धान्त में त्रस घात, वहुवध, प्रमाद विषय, अनिष्ट, अनुपसेव्य इन विषयों के भेद से पाँच प्रकार भोग परिसंख्यान माना गया है । जिस का कि भोग्य अभोग्य में विचार करना पड़ता है। त्रस घात और बहुस्थावरघात तो जीव हिंसा की अपेक्षा अभोग्य है। शेष तीन शुद्ध होते हुये भी प्रमाद का कारण, प्रकृति को अनिष्ट और लोक में अनुपसेव्य होने से परित्यजनीय हैं। अतिथि के लिये भिक्षा, उपकरण, औषध, आश्रय, के भेद से निर्दोष द्रव्यों का प्रदान करना अतिथि संविभाग है। अपने लिये बनाये गये शुद्ध भोजन का देना अथवा धर्म के उपकरण पिच्छिका पुस्तक कमण्डलु, आर्यिका के लिये वस्त्र आदि रत्नत्रय वर्द्धक पदार्थों का देना परम धर्म की श्रद्धा कर के औषध और आवास का प्रदान करना अतिथि संविभाग व्रत है । इन सात शीलों से सम्पन्न भी गृही होना चाहिये । यहाँ सम्पन्न शब्द साभिप्राय है जैसे कोई बड़ा श्रीमान् ( धनाढ्य । निज सम्पत्ति से अपने को भाग्यशाली मानता रहता है, मेरे कभी लक्ष्म का वियोग नहीं होवे ऐसी सम्पन्न बने रहने की अनुक्षण भावना भावता रहता है। उसी प्रकार गृहस्थ इन व्रतोंसे अपने को महान् सम्पत्तिशाली बने रहने का अनुभव करता रहे। .. ... . . . . . ..

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