Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
सप्तमोऽध्याय
६०९ तोद्रिक्त वृत्तघ्न कषायोदयमान्यतः महाव्रतायतेऽलक्ष्यमोहे गेहिन्यणुव्रतम्" ( सागारधर्मामृत ) अन्य ग्रन्थों का भी यही अभिप्राय है।
तथैव देशविरतिर्विशुद्धिकृत् । अनर्थदण्डः पञ्चधा अपध्यानपापोपदेशप्रमादचरितहिंसाप्रदानाशुभश्रुतिभेदात् । ततोऽपि विरतिर्विशुद्धिकारिणी । नरपतिजयपराजयादिसंचिंतनलक्षणादपध्यानात् क्लेशतिर्यग्वणिज्यादिवचनलक्षणात्पापोपदेशात् निःप्रयोजनवृक्षादिछेदनभूमिकुट्टनादिलक्षणात्प्रमादाचरितात् विषशस्त्रादिप्रदानलक्षणाच्च हिंसाप्रदानात् हिंसादिकथाश्रवणशिक्षणव्यापूतिलक्षणाच्चाशुभश्रुतेविरतेर्विशुद्धपरिणामोत्पत्तेः॥
जिस प्रकार दिग्विरति विशुद्धिकारिणी है उस ही प्रकार देशविरति भी विशुद्धि को करनेवाली है। मृत्युपर्यन्त की गई दिग्विरति के भीतर ही घर, पर्वत, ग्राम आदि देशों की अवधि कर प्रतिदिन, पक्ष, महीना, चार महीना, वर्ष आदि कुछ काल तक मर्यादा करता है वह देशव्रती है। इस के भी मर्यादा के बाहर सर्वसावद्य की निवृत्ति हो जाने से महाव्रतीपना उपचरित है। अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसाप्रदान, अशभति, के भेद से अनर्थदण्ड पांच प्रकार का है। उन अनर्थदण्डों से भी विरति करना आत्मविशुद्धि को करने वाला है। तहाँ राजाओं का जय, पराजय, अंगच्छेदन, धनहरण आदि का बार बार चिन्तन करना स्वरूप आर्त, रौद्र अपध्यान से विरति हो जाने पर आत्मा के विशुद्धपरिणाम उपजते हैं । एवं क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या हिंसा, आरम्भ आदि का कथन करना स्वरूप पापोपदेश से विरति हो जाने के कारण विशुद्ध परिणामों की उत्पत्ति होती है। प्रयोजन के बिना ही वृक्ष आदि का छेदन करना, भूमि खोदना, आग बुझाना, पानी सींचना, वायु का आरम्भ करना, व्यर्थ यहां वहां डोलना, आदि स्वरूप प्रमादाचरित से विरक्ति हो जाने पर आत्मा में विशुद्ध परिणामों की उत्पत्ति होती है । तथा हिंसा के उपकरण हो रहे विष, शस्त्र, अग्नि, लट्ठ, चाबुक, लेज आदि का प्रदान करना स्वरूप हिंसा प्रदान से गृहस्थ की विरति हो जाने पर आत्मा में विशुद्ध परिणतियां उपजती हैं एवं चित्त में कलुषता को करने वाली हिंसा आदि की कथाओं को सुनना या उनको सीखने, सिखाने का व्यापार करना आदि स्वरूप अशुभ श्रुति नामक अनर्थदण्ड से विरति हो जाने से भी विशुद्ध परिणामों की उत्पत्ति होती है ॥
मध्येऽनर्थदण्डग्रहणं पूर्वोत्तरातिरेकानर्थक्यज्ञापनार्थ तेनानर्थदण्डात्पूर्व योदिग्देशविरत्योरुत्तरयोश्चोपभोगपरिमाणयोरनर्थकं चंक्रमाणादिकं विषयोपसेवनं च न कर्तव्यमिति प्रकाशितं भवति ततो विशुद्धिविशेषोत्पत्तेः । सामायिकं कथं त्रिधा विशुद्धिदमिति चेत् , प्रतिपाद्यते । सामायिक नियतदेशकाले महाव्रतत्वं पूर्ववत् ततो विशुद्धिरणुस्थूलकृताहिंसादिनिवृत्तेः । संयमप्रसंगः संयतासंयतस्यापीति चेन्न, तस्य तद्घातिकर्मोदयात् । महाव्रतत्वाभाव इति चेन्न, उपचाराद्राजकुले सर्वगतचैत्रवत् ।
पूर्ववर्ती दिग्बत और देशवत तथा उत्तरवर्ती उपभोगपरिमाण और परिभोग परिमाण के मध्य में अनर्थदण्ड का ग्रहण करना तो पूर्ववर्ती और उत्तवर्तीव्रतों के अतिरेक का अनर्थकपना समझाने के लिये है तिस करके अनर्थदण्डविरतिके पूर्व में कहे गये नियत परिमाण वाले दिग्विरति और देश विरति तथा अनर्थदण्डव्रत से पीछे उत्तरवर्ती हो रहे नियत कर लिये गये उपभोगपरिमाण और परिभोगपरिमाण व्रतों में भी व्यर्थ का भ्रमण चंक्रमण आदि करना और निरर्थक विषयों का सेवन करना आदि कर्म नहीं करने चाहिये यह मध्य में अनर्थदण्डव्रत के डालने से प्रकाशित हो जाता है। उस अनर्थदण्डविरति से