Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 629
________________ ६०८ श्लोक-वार्तिक गृहस्थ की दीक्षा के भेद बारह कहे गये हैं। इन बारह व्रतों को गृहस्थ के उत्तर गुण भी कहते हैं । वे सब बारहों व्रत सम्यत्क्व को पूर्ववर्ती मान कर होने चाहिये । अर्थात् सम्यत्क्व पूर्वक होंगे तभी वे व्रत | या गृहस्थ दीक्षा के भेद कहे जा सकते हैं। मिथ्यादृष्टि के कदाचित् पाये जा रहे भी अहिंसा आदिक परिणाम कथमपि व्रत नहीं कहे जाते हैं। कुतः कारणादिग्विरतिः परिमिताच्च समाश्रीयते यतो विशुद्धिकारिणी स्यादिति चेत्, दुष्परिहारक्षुद्रजन्तुप्रायत्वाद्विनिवृत्तिस्तत्परिमाणं च योजनादिभितिवद्भिः। ततो आगमनेऽपि प्राणिवधाद्यभ्यनुज्ञातमिति चेन्न, निवृत्यर्थत्वात्तद्वचनस्य कथंचित्प्राणिवधस्य परिहारेण गमनसम्भवात् । तृष्णाप्राकाम्यनिरोधनतन्त्रत्वाच्च तद्विरतर्महालाभेऽपि परिमितदिशो बहिरगमनात् । ततो बहिर्महाव्रतसिद्धिरिति वचनात् । ___यहाँ कोई प्रश्न करता है कि-किस कारण से परिमित स्थान से दिग्विरति व्रत का भले प्रकार आश्रय लिया जा रहा है ? जिस से कि वह दिग्विरति अणुव्रती के लिये आत्मविशुद्धि को करने वाली हो सके। यो प्रश्न करने पर तो ग्रन्थकार उत्तर कहते हैं कि जिन का बड़ी कठिनता से रक्षार्थ परिहार हो सकता है ऐसे छोटे-छोटे जन्तुओं करके ये दिशायें प्रायः भरपूर हो रही हैं इस कारण अहिंसा व्रतकी पुष्टि के लिये उन दिशाओं की विशेषतया निवृत्ति करनी चाहिये । अर्थात् छोटे छोटे जन्तु सर्वत्र भरे हुये हैं अतः अवधिभूत दिशाओं के बाहर गमनागमन नहीं करने से उन जन्तुओं की रक्षा हो जाती है। तथा लोक प्रसिद्धि अनुसार जाने जा चुके अथवा प्रसिद्ध हो रहे योजन, समुद्र, नदी, वन आदि चिन्हों करके उन दिशाओं का परिमाण कर लेना चाहिये। दिग्विरति करके सीमाके बाहर सम्पूर्ण पापों की निवृत्ति हो जाने से गृही मुनि के समान भासता है। यहाँ कोई आक्षेप करता है कि उस दिशा का परिमाण करने से भले ही व्रती सीमा के बाहर गमन नहीं करता है तो भी उन परिमित दिशाओं के भीतर स्थित हो रहे प्राणियों के वध आदि को उस व्रती ने अवश्य स्वीकार कर लिया है अन्यथा दिशाओं का परिमाण करना व्यर्थ पड़ता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि व्रती पुरुष के प्रति उस दिग्विरति का कथन करना निवृत्ति के लिये है। सीमा के भीतर भी यथा योग्य प्राणियों के वध का परिहार करते हुये उस व्रती का गमनागमन करना सम्भवता है । दिग्विरति की सीमा के बाहर जीव वध की निवृत्ति के लिये जो उद्यत हो रहा है और सीमा के भीतर भी पूर्णरूप से निवृत्ति करने के लिये अशक्य है वह बहुत प्रयोजन के होते हुये भी परिमित अवधि से बाहर कथमपि गमन नहीं करूँगा ऐसा प्रणिधान कर रहा है अतः कोई दोष नहीं आता है । जो महाव्रत धारण करने के लिये भावना कर रहा गही आज दिग्विरतिव्रत को पाल रहा है तो कुछ दिनों पश्चात् वह सर्वत्र अहिंसा महाव्रत पालने के लिये समर्थ हो जायगा। क्रम क्रम से चढ़ने वाले अभ्यासी के लिये उतावलापन करना उचित नहीं । एक बात यह भी है कि उस दिग्व्रत का पालन यथेच्छ बढ़ी हुई तृष्णा के रोके जाने की अधीनता से हुआ है । मणि, रत्न, आदिका महान लाभ होने पर भी परिमित दिशा के बाहर उस व्रती का गमन नहीं होता है । तिस कारण अहिंसाणुव्रत के धारी इस व्रती के परिमित अवधि के बाहर नवभंगों करके हिंसा आदि सर्व पापों की निवृत्ति हो जाने से महाव्रत की सिद्धि हो जाती है ऐसा आचार शास्त्रों में कथन किया गया है। अर्थात् दिग्विरत अणुव्रती भी महाव्रती के समान समझा जाता है "अवधेर्बहिरणुपापप्रतिविरतेर्दिग्ब्रतानि धारयताम पञ्चमहाव्रतपरिणतिमणव्रतानि प्रपद्यन्ते प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्द तराश्चरणमोहपरिणामाः सत्त्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्पन्ते" ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) “दिग्ब्र

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