Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 622
________________ - सप्तमोऽध्याय ६०१ आरोग्यतावान्, रूपवान्, बलवान् आदि की कोई व्यवस्था नहीं बन सकेगी। जगत् में एक से एक बढ़ कर धनी आदि हो चुके हैं । पूर्ण धनी आदिक तो बिरल हैं । अल्पज्ञान, अल्पधन आदि से भी ज्ञानवान् धनवान् की व्यवस्था करनी ही पड़ेगी ॥ संग्रहनयाद्वाणुव्रत महाव्रतव्य क्तिवर्तित्रतत्वसामन्यादेशादणुव्रतोऽपि व्रतीष्यते नगरैकदेशवासिनो नगरवासव्यपदेशवत् देशविषयराजस्यापि राजन्यपदेशवच्च । नैगम नय अनुसार श्रावक का व्रती हो जाना समझा दिया गया है क्योंकि नैगम नय संकल्प मात्र को ग्रहण करता है श्रावक के सकलवती होने का संकल्प हो रहा है । तथा सामान्य रूप से कच्चे, पक्के, छोटे, अधूरे, हेठे, आदि सभी विशेषों का संग्रह करने वाली संग्रह नय से महाव्रत इन सम्पूर्ण व्रतव्यक्तियों में वर्त रहे व्रतत्व सामान्य का कथन कर देने की विवक्षा से तो छोटे व्रतों का धारी गृहस्थ भी व्रती कहा गया इष्ट किया जाता है जैसे कि नगर के एक देश में निवास कर रहे पुरुष का “नगरवासी" यों व्यवहार कर दिया जाता है। तथा जैसे मालवा, पंजाब, मेवाड़, ढूंढाड़, गुजरात, बंगाल, बिहार, सिन्ध, काठियावाड़, आदि प्रान्त या सर्विया, बलगेरिया, पैटोगोनिया, ब्राजील, पैरू, स्कोटलेण्ड, मिश्र आदि द्वीप एवं ग्राम नगर समुदायस्वरूप एक प्रान्त या एक देश के राजा को भी राजापने का व्यवहार कर दिया जाता है। जबकि बत्तीस हजार देश या पचासों विषयों के सार्वभौम राजा को राजा कहना चाहिये । भारतवर्ष में क्वचित् एक प्रान्त में कतिपय राजा विद्यमान हैं। अकेले बुन्देलखण्ड में पचास, चालीस राजा होंगे। मारवाड़ दश, बीस राजा हैं। थोड़ी सी रियासत के अधिपति या ज़मीदार अथवा किसी किसी सेठ को भी राजा पदवी दे दी जाती है । यों सम्पूर्ण रूप से राजा नहीं होते हुये भी पचास, सौ गाँवों के अधिपति को जैसे राजापना व्यवहृत हो जाता है उसी प्रकार संग्रह से अणुव्रती का भी व्रतियों में संग्रह हो जाता है । व्यवहारनयादेशतो व्रत्यय्पगारी व्रतीति प्रतिपाद्यते तद्वदेवेत्यविरोधः । तीसरे व्यवहार नय से संव्यवहार करने पर एक देशसे व्रती हो रहा भी गृहस्थ व्रती है यों व्यवहारियों में कह दिया जाता । उस के ही समान अर्थात् जैसे एक देश या आधे विषय अथवा दश बीस ग्रामों के अधिपति को भी राजा कह दिया जाता है । यों नैगम संग्रह व्यवहारनयों अनुसार गृहस्थ को भी व्रती कह देने में कोई विरोध नहीं आता है । यहाँ तक अगारी शब्द की टीका हो चुकी है । न विद्यते अगारमस्येत्यनगारः स च व्रती सकलव्रतकारणसद्भावात् । ततो अगृहस्थ एव व्रतीत्येकांतोऽप्यपास्तः ॥ अब अनगार का अर्थ कहा जाता है। जिस किसी इस जीव के अगार यानी घर नहीं विद्यमान है, इस कारण अनगार कहा जाता है । वह अनगार हो रहा सन्ता व्रतों का धारी है क्योंकि मुनियों के सम्पूर्ण व्रतों के कारणों का सद्भाव है । तिस कारण यानी गृहस्थ और अगृहस्थ दोनों को व्रतित्व के कारणों का सद्भाव हो जाने से इस एकान्त आग्रह का भी निराकरण किया जा चुका है कि गृहस्थ भिन्न हो रहा मुनि ही व्रती होता है गृहस्थ व्रती नहीं होता है । अथवा दोनों के व्रतीपन का विधान हो जाने से गृहस्थ ही व्रती होता है, मुनिजन व्रती नहीं इस कदाग्रह का प्रत्याख्यान कर दिया जाता है || इस अपरंपार लीला के धारी जगत् में ऐसे भी सम्प्रदाय हैं जो कि साधुओं को नहीं मानकर गृहस्थ अवस्था से ही निःश्रेयस प्राप्ति हो जाने को अभीष्ट करते हैं । और गृहस्थ को अल्प भी व्रती नहीं मानकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692