Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक तदेवं वस्त्रपात्रदण्डाजिनादिपरिग्रहाणां न परिग्रहो मूर्छारहितत्वात् तत्त्वज्ञानादिस्वीकरणवदिति वदंतं प्रत्याह॥
___ यहाँ कोई कटाक्ष करता है कि सूत्रकार ने परिग्रह का लक्षण मूर्छा कहा सो ठीक है, जैनमुनि परिग्रहों का सर्वथा त्याग कर रहे आकिञ्चन्य धर्म में दृढ़ हैं। हां संयम का उपकरण होने से वे मुनि कमण्डलु, पिच्छिका, पुस्तकों को ग्रहण कर लेते बताये गये हैं। जब कि कमण्डलु आदि का परिग्रह मूर्छा का कारण न होने से परिग्रह नहीं माना जाता है, तब तो इसी प्रकार वस्त्र ( कपड़ा ) पात्र ( पाथड़ा) दण्ड ( त्रिदण्ड, एक दण्ड आदि ) आर्जन ( मृग, व्याघ्र, सिंह का चमड़ा ) आदि माला, चश्मा, घड़ी, जटा, कन्था, चीमटा, आदि परिग्रहों को भी परिग्रह पाप नहीं माना जाय ( प्रतिज्ञा ) मूर्छारहित होने से ( हेतु ) तत्त्वज्ञान, क्षमा, पिच्छिका आदि के अंगीकार करने समान ( अन्वयदृष्टान्त ) यह अनुमान ठीक है । अर्थात् लज्जा दूर करने के लिये वस्त्रका ग्रहण है जो कि कामुक स्त्री, पुरुषों, विकारों की निवृत्ति के लिये आवश्यक है । स्वयं की लज्जा का भी निवारण हो जाता है। साधु को जनता निर्लज्ज नहीं कहने पाती है । शुद्धभोजन या भैक्ष्यशुद्धि अनुसार अनेक भिक्षाओं को प्राप्त करने के लिये अथवा गुरु या रुग्णव्रती को भिक्षा का भाग देने के लिये पात्रकी आवश्यकता हो जाती है रुपया, पैसा धरने के लिये पात्र नहीं बांधा जाता है जिससे कि मूर्छा हो सके । इसी प्रकार कुत्ता, बिल्ली या सहचरियों को मारने के लिये दण्ड नहीं है केवल त्रिदण्डी या एक दण्डी साधु को अपना चिह्न दण्ड हाथ में उठाये रखना पड़ता है। अशुद्ध स्थल पर चमड़े को बिछाकर ध्यान लगा दिया जाता है। मयूरपिच्छिका के समान चमरीरुह, शंख आदि में सन्मूर्च्छन जीव नहीं उपजते हैं। जाप देने के लिये माला भी चाहिये। छोटे अक्षरों को देखने के लिये चक्षुरोगी साधु को उपनेत्र ( चश्मा ) धारना पड़ता है। सामायिक का समय देखने के लिये घड़ी की आवश्यकता है। जटायें तो अपने आप बढ़ जाती हैं। शरीर से उपजी उष्णता करके अनेक जीव मर जाते हैं । कन्था या वस्त्र से उन जीवों की रक्षा हो सकती है। इस प्रकार वावदूकता पूर्वक कह रहे कटाक्षकर्ता के प्रति आचार्य महाराज समाधान वचन को कहते हैं।
मूर्छा परिग्रहः सोपि नाप्रमत्तस्य युज्यते।
तथा विना न वस्त्रादिग्रहणं कस्यचित्तः ॥३॥ मुर्छा करना परिग्रह है, यों इस सूत्र द्वारा परिग्रह का निर्दोष लक्षण किया गया है । वह परिग्रह भी अप्रमत्त जीव के नहीं पाया जाता है यह युक्ति पूर्ण सिद्धान्त है क्योंकि प्रमादरहित जीव के मुर्छा नहीं है तिस कारण उस मूर्छा के बिना किसी भी जीव के वस्त्र, पाथड़ा, आदि का ग्रहण करना नहीं सम्भवता है यों सिद्धान्त हो चुकने पर वस्त्र, आदि को ग्रहण करने वाले साधुवेशी या अन्य जीव सभी परिग्रहदोषवान् हैं। अर्थात् वस्त्र के रक्षण सीवन, धोवन, प्राप्ति, आदि में अनेक आरम्भ करने पड़ते हैं । प्रमेयकमलमार्तण्ड में लिखा है कि "ह्रीशीतार्तिनिवृत्यर्थं वस्त्रादि यदि गृह्यते । कामिन्यादिस्तथा किन्न कामपीडादिशान्तये ॥ येन येन बिना पीडा पुंसां समुपजायते । तत्तत्सर्वमुपादेयं लाबकादि पलादिकम् ॥” यों राग का कारण हो रहा वस्त्र तो परिग्रह ही है। भोजन या भिक्षा के लिये पात्र रखना भी परिग्रह है । मुनि एक ही स्थान पर श्रावक के घर जा कर पाणिपात्र द्वारा निर्दोष आहार लेते हैं। हाँ बहिरंग शुद्धि के लिये जलाधार कमण्डलु को रखना पड़ता है। साधु की ऊंची अवस्था में कमण्डलु
और पिच्छी का त्याग हो जाता है । तीर्थकर मुनि को कमण्डलु और परिहारविशुद्धिसंयमी को पिच्छिका की आवश्यकता नहीं है, चिह्नरूप से भले ही लिये रहें। इसी प्रकार दण्ड रखना तो परिग्रह ही है यह