Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय
५८१ स्त्री पुरुष दोनों का कर्म मैथुन है तिस प्रकार अन्तरंग में चारित्र मोहनीय की उदीरणा होने पर और बहिरंग में हस्त आदि द्वारा संघर्षण करने पर अकेले पुरुष या स्त्री के भी उपचार से मैथुन होना बन जावेगा। कश्चित् या ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि अकेले अकेले में उपचार से मैथुन मान लेने पर मुख्यफल के अभाव का प्रसंग हो जावेगा। अर्थात् जैसे बालक में सिंह का उपचार करने पर मुख्य सिंह में पायी जा रही क्रूरता, शूरता, बलाढ्यता, चंचलता आदि की प्रवृत्ति नहीं है उसी प्रकार मुख्य रूप से दोनों में ही पाई जा रही रागपरिणति को यदि एक में भी उपचार से धरा जायगा तो अब्रह्म हेतुक आ रहे तीव्र कर्मों का बंध नहीं हो सकेगा। उपचार की राग परिणति कर्मबंध नहीं कराती है। तिस कारण अब तक किसी भी ढंग करके मैथुन शब्द से अभीष्ट अर्थ की समीचीन प्रतीति नहीं हो सकी है । यहाँ तक कोई आक्षेप पूर्वक चोद्य कर रहा है।
तत्प्रतिक्षेपार्थमुच्यते-न च स्पर्शवद्र्व्यसंयोगस्याविशेषाभिधानादेकस्य द्वितीयत्वोपपत्तौ मिथुनत्वसिद्धेः, प्रसिद्धिवशाद्वार्थप्रतीतेः पूर्वोक्तानां चानवद्यत्वात् सिद्धो मैथुनशब्दार्थः ।
उस कश्चित् के आक्षेप का निराकरण करने के लिये ग्रन्थकार महाराज करके कहा जाता है कि उक्त आक्षेप उठाना ठीक नहीं हैं क्योंकि स्त्री और पुरुष का परस्पर शरीरालिंगन होने पर राग परिणति होना मैथुन है यह लक्षण अच्छा है। स्पर्शवान् द्रव्यों के संयोग को विशेषतारहित कहा गया है इस कारण अकेले को भी द्वितीयपन की सिद्धि हो जाने पर मिथुनपना सिद्ध है। वैशेषिक तो दो आदि में रहने वाले संयोग, विभाग, द्वित्व, त्रित्व, आदि पर्याप्त गुणों को एक ही मान लेते हैं। जैन सिद्धान्त अनुसार धर्म, अधर्म, काल, आकाश, आत्मा इन द्रव्यों के संयोग न्यारे न्यारे माने गये हैं जैसे दो पदार्थों में समवाय सम्बन्ध से वर्त्त रहीं न्यारी न्यारी दो द्वित्व संख्यायें हैं। आकाश और आत्मा इन विजातीयद्रव्यों का संयोग धर्म एक नहीं हो सकता है। परिशेष में जाकर वे दो ही संयोग सिद्ध होंगे किंतु उनमें कोई विशेषता नहीं है हाँ संसारी जीव और उसके साथ भिड़ गये पुद्गलों का अथवा अशुद्ध पुद्गल पुद्गलों का जब तक ,संयोग है तब तक वे अनेक ही संयोग मानने पड़ेंगे। बंध हो जाने पर एकत्व परिणति हो जाती है जो कि संयोग परिणाम से निराली है। प्रकरण में यह कहना है कि स्त्री पुरुष में से अकेले को भी स्पर्शजन्य आभिमानिक सुख तुल्य है। अतः अकेले में भी मैथुन शब्द की मुख्य रूप से ही प्रवृत्ति है और राग, द्वेष, मोह, परिणतियों अनुसार प्रत्येक को कर्मों का बंध हो जाता है । लोक और शास्त्र में जो प्रसिद्धि हो रही है उसके वश से मैथुन शब्द के अर्थ की प्रतीति हो जाती है इस कारण पहिले कहे जा चुके सभी मैथुन शब्द के अर्थ निर्दोष हैं। इस प्रकार मैथुन शब्द का अर्थ सिद्ध हो चुका है । अर्थात् लोक में तो बाल गोपाल आदि सभी जन स्त्री पुरुषों की रति क्रिया को मैथुन कह रहे हैं । व्याकरणशास्त्र में भी "अश्वस्यति बडवा, वृषस्यति गौः" इन प्रयोगों को" "अश्ववृषभयोमैथुनेच्छायाँ' इस सूत्र से सिद्ध किया है। अन्य शास्त्रों में भी मैथुन का अर्थ स्त्री पुरुष विषयक रति ही पकड़ी जाती है। मिथुन का भाव मैथुन, मिथुन का कर्म मैथुन, स्त्री पुरुषों का कर्म मैथुन, स्त्री पुरुषों का परस्पर शरीर संसर्ग होने पर राग परिणाम मैथुन, ये सब लक्षण दोष रहित हैं। देखिये सबसे पहिले जो यह कहा था कि मिथुन का भाव मैथुन तो ठीक नहीं क्योंकि दो द्रव्यों के भवनमात्र का प्रसंग आ जायगा यह कहना प्रशस्त नहीं है क्योंकि अंतरंग परिणाम नहीं होने पर बाह्य हेतु निष्फल हो जाते हैं । जैसे कि कंकड़ चने, टोरा, उर्दटोरा मौंठ, कुदित्ती आदि के अभ्यन्तर में पाकविक्लेदन शक्ति के न होने पर बहिरंग अग्नि, जल का संबन्ध व्यर्थ हो जाता है। तिसी प्रकार अभ्यन्तर चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले स्त्री के पुरुषरमण भाव और पुरुष के स्त्रीरमण में भाव यदि नहीं हैं तो बाह्य