Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय
५७९ विशेष यह कहना है कि कदाचित् कमण्डलु में प्रासुक जल न रहे या दूसरे मुनि की समाधिमरण क्रिया के लिये अथवा अपनी शारीरिक शुद्धि के लिये इन पदार्थों की आवश्यकता पड़े तो शून्य स्थान में पड़े हुये इन प्रासुक हो चुके पदार्थों को मुनि ले सकते हैं यह आचार शास्त्र का उपदेश कादाचित्क और क्वाचित्क है सार्वदिक नहीं। कंकड़, पत्थरों से आस्फालित हुआ या वायु, घाम, आदि से अनेक बार छूया गया बहुत जल केवल अंग शुद्धि के लिये क्वचित् प्रासुक मान लिया गया है, पीने के लिये नहीं । इसी प्रकार सूखा गोबर भी मात्र भू शुद्धि या उपाङ्गशुद्धि के लिये उपयोगी ले लिया गया है अन्य धार्मिक क्रियाओं में गोबर को शुद्ध नहीं मान लेना चाहिये। अनेक मनुष्य तो कंडों की सिकी बाटियों, रोटियों, को नहीं खाते हैं । गोबर पंचेन्द्रिय का मल ही तो है, अनेक सन्मूर्छन त्रस जीवों का योनिस्थान है । जैन शास्त्रों में प्रमादवश बहुत सा भ्रष्टसाहित्य घुस पड़ा है अतः कितने ही भोले पण्डित उन-उन ग्रन्थों का प्रमाण देकर गोमय को शुद्ध मानने का घोर प्रयत्न करते हैं । वैष्णवों का सहवास रहने से ईश्वरवाद की गंध या गोबर गोमूत्र की पवित्रता भी जैनों में बिना बुलाये घुस पड़ी है । बुंदेलखण्ड, राजपूताना, आगरा प्रान्त आदि के अनेक वैष्णव ब्राह्मण और वैश्य मांस का भक्षण नहीं करते हैं। पूर्वदेशीय शाक्त पंडित यदि वेदों का प्रमाण दे देकर उनको मांसभक्षण की ओर प्रेरित करें तो भी वे उनके उपदेश को अग्राह्य समझते हैं । इसी प्रकार दक्षिण देश के कतिपय पण्डित कई शास्त्रों का प्रमाण देकर उत्तर प्रांत वाले या मध्य प्रान्त वाले अनेक तेरह पंथी जैनों को गोमय की पवित्रता मनवाने के लिये झुकाते हैं किंतु पद्मावतीपुरवाल, परवार बहुभाग खण्डेलवाल, अग्रवाल आदि जातियों में सैकड़ों, हजारों, वर्षों से गोमय को धार्मिक क्रियाओं में नहीं लिया गया है । आम्नाय भी कोई शक्तिशाली पदार्थ है। आचार्यों ने भी सर्वज्ञ भाषित अर्थ को चली आई आम्नाय अनुसार ही शास्त्रों में लिखा है। अतः शास्त्र भी आम्नाय की भित्तिपर डटे हुये हैं । कुलों जातियों या मनुष्य समुदायों में जो क्रिया आम्नाय अनुसार चली आ रही है उन अच्छी क्रियाओं से जनता को च्युत कर भ्रष्ट चारित्र पर झुका देना जैन विद्वानों का कर्तव्य नहीं होना चाहिये । नय विवक्षाओं से जैन ग्रन्थों की कथनी को समझ कर उसके अन्तत्तल पर पहुंच रहा पंडित ही विचारशाली कहा जायगा । राजाओं या लौकिक परिस्थितियों के वश कितने ही जैन मंदिरों में अजैन देवों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हो गयी हैं। कहीं-कहीं तो वीतराग जिन मूर्तियों के सन्मुख जीव हिंसा तक निंद्य कर्म होते हैं । क्वचित् जिन मन्दिरों को छीन कर शवमन्दिर या वैष्णव मन्दिर, मस्जिद भी बना डाला गया है। इस जैनों की निर्बलता का भी क्या कोई ठिकाना है । इतिहास प्रमाण और अनुमान प्रमाण बतलाते हैं कि जैनों के ऊपर बड़े-बड़े घोर संकट के अवसर आ चुके हैं। ग्रन्थों में निकृष्ट साहित्य का घुस जाना इन्हीं धार्मिक क्रांतियों का परिणाम है। "आदौ देवं परीक्षेत" इसी के समान ग्रन्थों की भी परीक्षा कर आगम प्रामाण्य मानना समुचित है। चाहे किसी भी आचार्य का नाम दे कर गढ़ लिये गये चाहे जिस ग्रन्थ को
आँख मीच कर प्रमाण मान लेना परीक्षाप्रधानी का कर्तव्य नहीं है। इस ग्रन्थ के आदि भाग में तार्किक शिरोमणि श्री विद्यानंद स्वामी ने परीक्षाप्रधानिता को पुष्ट किया है । प्रकरण में यह कहना है कि प्रमाद योग नहीं होने से प्रासुक नदी जल आदि का ग्रहण करना चोरी नहीं है।
अथ किमब्रह्मेत्याह
हिंसा, झूठ, चोरी इन तीन पापों का लक्षण कहा जा चुका है। अब चौथे अब्रह्म नामक पाप का लक्षण क्या है ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा उपजने पर सूत्रकार इस अगले सूत्र का निरूपण करते हैं।
मैथुनमब्रहम ॥१६॥