Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय
५७७ जीव के लिये धर्म दिया है यह व्यवहार किस प्रकार घटित किया जा सकेगा ? धर्म का तो वस्त्र आदि के समान देना, लेना, नहीं संभवता है। यों आपत्ति करने पर तो आचार्य उत्तर कहते हैं कि धर्म के कारण हो रहे मन्दिर, शास्त्र, पुस्तक, मंत्र उच्चारण, दीक्षा, आदि के देने से कारण में कार्य का उपचार हो जाने से धर्म का दान किया जाना सिद्ध हो जाता है । वस्तुतः धर्म तो उपकारी या उपकृत की आत्माओं में प्रविष्ट हो रहा है गुरु स्वयं अपने श्रुतज्ञान को या सर्वज्ञ अपने केवलज्ञान को दूसरों के लिये लवमात्र भी नहीं दे सकते हैं । हाँ क्षयोपशम को बढ़ाने वाले प्रधान कारणों की योजना कर देते हैं। यहां धर्म के कारणों को धर्म कह दिया गया है यह कारण में कार्य का उपचार है। धर्म के उपयोगी अनुष्ठान करा देने से अथवा धर्म में मन के कर देने से भी तिस प्रकार धर्म के देने का व्यवहार बन जाता है । अतः हम जैनों के ऊपर कोई उलाहना नहीं आता है । जगत् में अनेक लाक्षणिक प्रयोग हो रहे देखे जाते हैं।
कथमेवं कर्मणा जीवस्य बंधस्तद्योग्यपुद्गलादानलक्षणः सूत्रित इति चेत्, शरीराहारविषयपरिणामतस्तद्वंधः शरीरिणो न पुनः स्वहस्ताद्यादानतः तेषामात्मनि शुभाशुभपरिणामढौकनस्यैवादानशब्देन व्यपदेशात् ।
पुनरपि कोई चोद्य उठाता है कि यदि इस प्रकार कर्मों का दान, आदान ही नहीं माना जायगा तो कर्मों के साथ जीव का बंध किस प्रकार होगा ? जो कि"सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंधः” इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने सूचित किया है कि कर्म के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना स्वरूप वह बंध है । यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि यहां भी आदान का मुख्य अर्थ नहीं पकड़ा जाय; शरीरों में, आहारों में और शब्द आदि विषयों में राग द्वेषरूप परिणाम हो जाने से शरीरधारी आत्मा के साथ उन कर्मों का बंध हो जाता है किंतु फिर अपने हाथ, लिखित, आदि द्वारा आदान करने से उन कमों का आत्मा में ग्रहण नहीं हुआ है। आत्मा में प्रेरित होकर शुभ, अशुभ, परिणतियों के प्राप्त हो जाने को ही उन कर्मों का आदान इस शब्द करके व्यवहार कर दिया जाता है । अतः कर्मों का मुख्य आदान नहीं होता है ऐसी दशा में कर्मों का प्राप्त कर लेना चोरी नहीं कहा जा सकता है। बात यह है कि जहां ही इस लोक सम्बन्धी उपकार विशेष हो जाने से दान का अभिप्राय है वहां ही अदत्तादान की व्यवस्था अनुसार चोरी समझी जायगी अन्यत्र नहीं।
तर्हि शब्दादिविषयाणां रथ्याद्वारादीनां वादत्तानामादानात् स्तेयप्रसंग इति चेन्न, तदादायिनो यतेरप्रमत्तत्वात् तेषां सामान्येन जनैर्दत्तत्वाच्च ॥
___ पुनः कोई आपत्ति उठाता है कि तब तो किसी करके नहीं दिये जा चुके शब्द, रूप, गंध, आदि विषयों अथवा गली के द्वार, जिन मन्दिर प्रवेश, वसतिक प्राप्ति आदि का आदान कर लेने से मुनि महाराज के चोरी करने का प्रसंग आ जावेगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि उन शब्द आदि को ग्रहण कर रहे मुनि के प्रमादयोग नहीं है। उन शब्द आदिकों को सामान्य रूप से जीव साधारण के लिये मनुष्यों करके दिया जा चुका है। जो वस्तु सब के लिये दी जा चुकी है उसके ले लेने में चोरी नहीं है हाँ जो रहस्य के वा टेलीफोन के शब्द नियत व्यक्ति के लिये प्रयुक्त किये गये हैं उनको चला कर सुन लेने में चोरी अवश्य है यही बात परदा वाली स्त्री के रूप देखने या गंधीगर विक्रेता करके नियत व्यक्ति को इत्र की गंध सुधाने अथवा सेठ या राजा के नियत कोमल पलंग के छू लेने आदि में समझ लेनी चाहिये । यदि बिना प्रमादयोग के शब्द या रूप यों ही सुनने, देखने, में आजांय तो हम