Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय चौथे ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये सर्वदा प्रयत्न करने वाली मानसिक प्रवृत्तियों को धार रहा मैं स्त्रियों की रागवर्धिनी विकथाओं को छोड़ दूँ, न कहूं, न सुनूं , रति करने में चित्त को चारों ओर से बढ़ाने वाले उन स्त्रियों के मनोहारी अंगों के देखने को छोड़ दूं । पहिले रमण किये गये भोगों के स्मरण को छोड़ दूं, तथा कामवर्द्धक और बल वीर्यवर्द्धक, वृष्य और इष्ट रसों का संशय रहित होकर त्याग कर दूँ, तथा रति क्रिया में चित्तवृत्ति को बढ़ाने वाले अंजन, मंजन, मर्दन, स्नान, उबटन, पोंछना, झाड़ना आदि शरीर संस्कारों का त्याग कर दूँ । यों ब्रह्मचारी को इन पांचों भावनाओं से युक्त सद्विचार रखने चाहिये। ... इत्येवं भूरिशः समीक्षणात् ॥
___यों इस प्रकार प्रति समय भूरि भूरि समीचीन विचार करते रहने से चौथा व्रत परिपुष्ट हो जाता है। बार बार विचारना ही तो भावना है।
पंचमस्य व्रतस्य का भावना इत्याह;
पांचमे अपरिग्रह या आकिंचन्य व्रत की भावनायें कौन सी हैं ? ऐसी सद्भावना प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
मनोज्ञामनोजेंद्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच ॥८॥
स्पर्शन इन्द्रिय के मनोज्ञ विषय में राग छोड़ देना और स्पर्शन इन्द्रिय के अमनोज्ञ विषय में द्वेष छोड़ देना १ रसना इन्द्रिय के मनोनुकूल हो रहे रस विषय में राग करने का त्याग और रसना इन्द्रिय के मनः प्रतिकूल विषय में द्वेष का त्याग २ घ्राणः इन्द्रिय के अनुकूल गंध विषय में राग का त्याग और घ्राण इन्द्रिय के प्रतिकूल विषय में द्वेष का परित्याग ३ चक्षुःइन्द्रिय के मनोज्ञविषय में अनुराग धारने का परित्याग और चक्षुः इन्द्रिय के अमनोज्ञ विषयों में द्वेष करने का परित्याग ४ तथा कर्ण इन्द्रिय के मनोज्ञ शब्द विषयों में प्रीति करने का त्याग और श्रोत्र इन्द्रिय के अमनोज्ञ दुःस्वरों में द्वेष करने का त्याग ५ यों ये पांच भावनायें अपरिग्रह व्रत की हैं।
कथमिति निवेदयति ।
अपरिग्रहव्रती किस प्रकार भावनाओं को भावे ? इसके उत्तर में ग्रन्थकार श्री विद्यानंदस्वामी निवेदन करे देते
सर्वाक्षविषयेष्विष्टानिष्टोपस्थितेष्विह ।
रागद्वषो त्यजाम्येवं पंचमव्रतशुद्धये ॥१॥ इष्ट और अनिष्ट होकर उपस्थित हो रहे इन सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों में मैं पाँचमे आकिंचन्य व्रत की शुद्धि के लिये इस प्रकार सूत्रकार के कथनानुसार राग और द्वेषको छोड़ रहा हूँ। साथ ही छठी मन इन्द्रिय के पोषक या आविर्भावक मनोज्ञ, अमनोज्ञ, विषयों में राग द्वेषों को छोड़ रहा हूँ
इत्यनेकधावधानात् । . यों अनेक प्रकार अवधान यानी एकाग्र होकर सद्विचार करते रहने से आकिंचन्यव्रत दृढ़ हो