Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय
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ही नही बनता है ।। पांच इन्द्रियें, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन दश द्रव्यमाणों का आत्मा से विशेष नियत सम्बन्ध हो रहा है । चैतन्य, सुख, सत्ता इन भाव प्राणों का तो आत्मा के साथ तादात्म्य संबन्ध ही है अतः प्राणों का व्यपरोपण होने पर नियत प्राणी के दुःख उपजने से प्राणी का व्यपरोपण हुआ सिद्ध हो जाता है ।
ननु प्रमत्तयोग एवं हिंसा तदभावे संयतात्मनो यतेः प्राणव्यपरोपणेऽपि हिंसानिष्टेरि कश्चित् । प्राणव्यपरोपणमेव हिंसा प्रमत्त योगाभावे तद्विधाने प्रायश्चित्तोपदेशात्, ततस्तदुभयोपादानं सूत्रे किमर्थमित्यपरः । अत्रोच्यते ।
यहाँ कोई प्रश्न उठाता है कि “प्रमत्तयोगो हिंसा" प्रमत्त जीव का योग ही हिंसा है इतना ही हिंसा का लक्षण किया जाय संयमी आत्मा हो रहे मुनिराज के दूसरे क्षुद्र जीवों के प्राणों का व्यपरोपण होते हुये भी यदि उस प्रमत्त योग का अभाव है तो हिंसा होना इष्ट नहीं किया गया है "मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसा | मित्तेण समिदस्स" यत्नाचारी, समितिधारी मुनि के मात्र हिंसा हो जाने से ही पापबन्ध नहीं हो जाता है " उच्चालिदमि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमठ्ठाणे । आवादेज्ज कुलिंगो मरेज्ज तज्जोगमासेज्ज” “णहि तस्स तणिमित्तो बंधो सुहुमोपि देसिदो समये, मुच्छा परिग्गहोत्ति य अज्झप्पपमाणदो भणिदो" इस प्रकार कोई आक्षेपकर्ता कह रहा है। साथ ही एक दूसरा पण्डित भी यों अवधारण कर रहा है कि “प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इतना ही लघुसूत्र बनाया जाय प्राणों का व्यपरोपण कर देना ही हिंसा है। प्रमत्तयोग का पुंछल्ला नहीं लगाया जाय क्योंकि प्रमत्तयोग का अभाव होते हुये भी उस प्राणव्यपरोपण के करने पर प्रायश्चित्त करने का उपदेश दिया गया है मुनि या श्रावक से बिना जाने या बिना प्रमाद योग के यदि जीवों का बध हो जाता है तो उन को प्रायश्चित्त करना पड़ता है। श्रावक ने किसी गृह का ताला लगा दिया और भूल से उसमें बिल्ली रह गयी तो बिल्ली को दुःख पहुंचाने की क्रिया का प्रायश्चित्त श्रावक को लेना चाहिये । बिना जाने बर्तन में पानी रक्खा रहा उसमें जीव जन्तु उत्पन्न हो गये, मर गये या अन्य जीव ऊपर से पड़ गये इसका प्रायश्चित्त करना पड़ेगा । शास्त्र का अध्ययन करने बैठे उसी समय शारीरिक बाधा या अन्य आवश्यक कारण उपस्थित हो जाने पर एक मिनट के लिये उठ गये पश्चात् वायु का झकोरा आजाने पर लिखित जिनागम के पत्र इधर उधर उड़ गये तो भी इस अविनय का रसत्याग, कायोत्सर्ग आदि यथायोग्य प्रायश्चित्तं लेना पड़ता है अथवा नहीं भी उठे तो भी अन्यमनस्क अवस्था में पत्रों के अस्त व्यस्त हो जाने पर अविनय हेतुक प्रायश्चित्त करना पड़ता है तभी तो प्रतिक्रमण में ज्ञात, अज्ञात, प्रमाद, अप्रमाद अवस्था के लगे हुये सभी दोषों का प्रत्याख्यान या मिथ्यात्वापादन किया जाता है। “पडिक्कमामि भंते इरिया बहिये राहणा अणागुत्त े अइग्गमणे णिग्गमणे ठाणे गमणे चक्कमणे णाणुग्गमणे बीज्जुग्गमणे हरिदुग्गमणे उच्चारपरसवणखेलसिंघाणयविय डिययिट्ठावणाये जे जीवा एइंदिया वा वेइन्दिया वा तेइन्दिया वा चउरिन्दिया वा पंचेन्दिया वा गोल्लिदा वा पिल्लिदा वा संघहिदा वा संघादिदा वा ओद्दाविदा वा परिदाविदा वा करिच्छिदा वा लेस्सिदा वा छिंदिदा वा भिदिदा वा ठाणुदो वा ठाणचंकम्मणदो वा तस्सेउत्तरगुणं तस्स पायच्छित्तकरणं तस्स विसोहिकरणं जाव अरहंताणं भय मंताणं णमोकारं करेमि ताव - कार्यं पावकम्मे दुच्चरियं वोस्सरामि ॐ णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं इच्छामि भंते ईरियावहमालोचेडं पुव्वुत्तरदक्खिण पच्छिम चउदिसु विदिसासु विहरमाणेण जुगुत्तरदिट्टिणा दव्वा डवडवचरियाये पमाददोसेण पाणभूदजीवसत्ताणं एदेसि उपघातों