Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
सप्तमोऽध्याय
५६१ आदिमान जगत् है और द्रव्य स्वरूप अनादि अनन्त जगत् है। इस अनादि अनन्त संसार में अनन्तानन्त जीव नाना योनियों में दुःख भुगत रहे भटक रहे हैं । यहाँ कोई पदार्थ परिणामस्वरूप स्थिर नहीं है । जल के बबूला समान जीवित है, बिजली या मेघ के समान भोग सम्पत्तियाँ हैं । इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग की भरमार है, यह जगत् जन्म-जरामृत्युओं से आक्रान्त है । इस जगत् में जीव का इन्द्र, धरणेन्द्र कोई भी रक्षक नहीं है । इत्यादि प्रकार से जगत् के स्वभावों का चिन्तन करने से इस जीव को संवेग होता है। संसार से भय उपजता है, धर्म में प्रीति होती है । तथा काय अशुद्ध है, यावत् दुःखों का कारण है, रोगों से भरपूर है, आत्मा से भिन्न है, अनित्य है, कृपण या कृतघ्न सेवक के समान समय पर काम नहीं आता है, धोखा देता है, दुर्गन्ध है, मल मूत्रों का स्थान है, पाप के उपार्जन में दक्ष है, अत्यल्पकारण से रोगी होने या मरने को तैयार हो जाता है, यथायोग्य भाड़ा देते रहने पर भी दीन भिक्षुक के सदृश सदा भोगोपभोगों की याचना करता रहता है। इत्यादि शरीर के स्वरूपों का चिन्तन करते-करते विषय भोगों की निवृत्ति होजाने से वैराग्य उपजता है । तिस कारण जगत् और काय के स्वभावों की भावनायें भावनी चाहिये
__ भावयितव्यौ व्रतस्थैर्यार्थमिति शेषः । संवेगवैराग्ये हि व्रतस्थैर्यस्य हेतू, जगत्कायस्वभावभावनं संवेगवैराग्यार्थमिति परंपरया तस्य तदर्थसिद्धिः। जगत्कायशब्दायुक्ताौँ स्वेनात्मना भवनं स्वभावः, जगत्काययोः स्वभावाविति संवेगवैराग्यार्थ ग्राह्यं । संसाराद्भरुता संवेगः । रागीकारणाभावाद्विषयेभ्यो विरंजनं विरागः तस्य भावो वैराग्यं संवेगवैराग्याभ्यां संवेगवैराग्यार्थमिति द्वयोः प्रत्येकमुभयार्थत्वं प्रत्येतव्यं ।
"सोपस्काराणि वाक्यानि भवन्ति” इस नियम अनुसार व्रतों की स्थिरता के लिये भी इन दोनों की भावना करनी चाहिये इतना अंश शेष रह जाता है। पक्षान्तर का सूचक वा शब्द इस प्रयोजन को भी ध्वनित करता है। सूत्र के उपात्त शब्दों और शेष शब्दों को मिलाकर यों अर्थ कर देना चाहिये कि व्रतों को स्थिरता के लिये तथा संवेग और वैराग्य के लिये जगत् और काय के स्वभावों की भावनायें करते रहना चाहिये। संसार संवन्धी दुःखों से नित्य ही भयभीत रहना संवेग है और इन्द्रियों के विषयो से विरक्त हो जाना वैराग्य है । जब कि संवेग और वैराग्य दोनों ही व्रतों की स्थिरता के हेतु हैं अतः जगत् और काय के स्वभावों की भावना करना संवेग और वैराग्य के लिये है यों परंपरा से उस भावते रहने को उन संवेग और वैराग्य स्वरूप प्रयोजनों की सिद्धि का साधकत्व है। अर्थात् जगत् और काय के स्वभाव का चिन्तन करने से व्रती जीव की अहिंसादि व्रतों में स्थिरता होती है पुनः व्रतों में स्थिरता हो जाने से संवेग और वैराग्य ये प्रयोजन सधते हैं। जगत शब्द और काय शब्द के अर्थों को कहा जा चुका है । गच्छति इति जगत्, चीयते इति कायः जो अपने परिणामों द्वारा अनादि से अनन्तकाल तक चलता जा रहा है वह जगत् है । शरीर नाम कर्म का उदय होने पर जीवों के निकट एकत्रित हो गया पुद्गल तो काय है । जगत् काअर्थ यदि लोक मान लिया जाय तो लोक का अर्थ या संसार का अर्थ पहिले सूत्रों में कहा जा चुका है । काय का अर्थ भी पहिले प्रकरणों में आ चुका है। अन्तरंग बहिरंग कारणों अनुसार स्वकीय आत्मस्वरूप से होते रहना स्वभाव है । जगत् और काय के जो दो स्वभाव हैं इस प्रकार द्वन्द्व गर्मित षष्ठीतत्पुष समास कर "जगत्कायस्वभावौं” यों शब्द साधु बना लिया जाता है। इस कारण जगत् और काय के स्वभाव यों संवेग और वैराग्य के लिये ग्रहण करने योग्य हैं। जन्म, जरा, मृत्यु क्षुधा, रोग आदि अनेक दुःखमय संसार से भयभीत होना संवेग है। राग के कारणों का अभाव हो