Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक - वार्तिक
सुन्दर अनुमानों करके सूत्रोक्त सिद्धान्त को पुष्ट किया गया है । द्रव्य और पर्याय के अनेकांत की पुष्टि करते हुये अनेकान्त में ही दुःख, शोक आदि की व्यवस्था बन जाती साधी गयी है । यहाँ बौद्धों के साथ अच्छा परामर्श किया गया है । अठारह अनुमान प्रमाणों करके असद्वेद्य के आस्रव की पुष्टि की गयी है । इसी प्रकार सद्वेद्य और दर्शन मोह तथा चारित्र मोह के आस्रावक कारणों को युक्तियों से साधा गया है। चारों आयुओं के आस्रव बोधक सूत्रों को भी अनुमानमूलक साधा गया है । च शब्द करके सर्वत्र सूत्रोतों को उपलक्षण मानकर अन्य उनके सजातीय परिणामों का संग्रह कर दिया गया समझाया है । देव, नारकियों का सम्यक्त्व तो मनुष्य आयु का आस्रावक है, हाँ मनुष्य, तिर्यंचों के सम्यक्त्व को वैमानिक देवों की आयु का आस्रावक हेतु समझा जाय । भुज्यमान आयु के आठ त्रिभागों में संभवने वाले आठ अपकर्ष कालों में या असंक्षेपाद्धा यानी भुज्यमान आयु का आवली का असंख्यातवां भाग काल शेष है । उसके पहिले अन्तर्मुहूर्त काल में आयु का आस्रव होगा । देव, नारकी और भोगभूमियों के अन्तिम छह महीने और नौ महीने काल में त्रिभाग पड़ेंगे। अशुभ नाम और शुभ नाम का आस्रव बखानते हुये तीर्थंकर प्रकृति के आ हेतुओं का सलक्षण निरूपण किया है । नीच गोत्र और उच्च गोत्र तथा अन्तराय के आस्रावक सूत्रोक्त परिणामों का व्याख्यान कर इति शब्द की अनुवृत्ति से सर्वत्र अनुक्त कारणों का संग्रह किया गया समझाया है। आत्मा के परिणामों द्वारा हुआ चित्र-विचित्र आस्रव पुनः आत्मा के अनेक विकारों का हेतु हो जाता है। बीजांकुरवत् यह द्रव्यास्त्रव और भावास्रव का परस्पर " हेतुहेतुमद्भाव" अनादि काल से चला आ रहा है । पुरुषार्थ और कर्मपरिणतियों अनुसार हुये विशुद्धि और संक्लेशों से पुण्य कर्मों का शुभ और पाप कर्मों का अशुभ आस्रव बखाना गया है । जगत् में जीव और पुद्गलों का बड़ा विचित्र नृत्य हो रहा है। अंतरंग और बहिरंग अनेक कारणों के अनुसार हुये विचित्र परिणामों का प्रदर्शक शास्त्र है । शस्त्र ज्ञायक है, कारक नहीं । यदि शास्त्र या सर्वज्ञ विचारे नैयायिकों के ईश्व समान कारक होते तो अनादि काल पूर्व ही ईश्वर से प्रार्थना कर इन पराधीन करने वाले कर्मों को जड़ मूल से उखाड़ फिंकवा देते । किन्तु जैनसिद्धान्त में पदार्थों के प्रभावों का मात्र अभिव्यंजक शास्त्र ठहराया गया है । तत्प्रदोष आदिक करके उन-उन कर्मों के अनुभाग बंध विशेष का नियम है । अल्प अनुभाग के लिये प्रकृतिबंध और प्रदेश बंध तो अन्य अन्य कर्मों का भी हो जाता है। वस्तुतः चारों बंधों में अनुभागबंध है । छठे अध्याय में सामान्य रूप से और विशेष रूप से आस्रव का प्रतिपादन किया गया है । अध्याय का विवरण कर अन्त में दूसरा आह्निक भी समाप्त कर दिया है ।
योगाकर्षितपंच संख्यकवपुर्भाषामनोवर्गणास्तत्तत्कर्मविपाकबंध नियमं चाख्यान् प्रदोषादिभिः । दृकशुद्ध चन्वितभावना र्जित शुभश्रीतीर्थकुल्लाभतो भव्यानां हितपद्धतिं प्रकथयन् भूयाज्जिनः श्र ेयसे ॥१॥
इति अनेकांतसिद्धान्तचक्रवर्त्ति श्रीविद्यानन्दस्वामीविरचित तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिकालंकार नामक महान् ग्रन्थ की आगरा मण्डलान्तर्गत चावली ग्राम निवासी माणिकचन्द्र कौन्देय कृत तत्त्वार्थचिन्तामणि नामक देशभाषामय टीका में छठा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।