Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अथ सप्तमोऽध्यायः ॥
स्याद्वाददीधितिसह सुनिरस्तमिथ्यावादत्रिषष्ठिसहित त्रिशतीतमिः ॥ निर्दोषवृत्तमहितो जिनपस्य जीयाद विश्वज्ञबोध तरणिर्जगदे कमित्रम् ॥१॥
श्री उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ के छठे और सातवें अध्याय में आव तत्व का प्ररूपण किया है । छठे अध्याय में आस्रव पदार्थ का व्याख्यान किया जा चुका है। स्थूलरूप से साम्परायिक आस्रव के पुण्यास्रव और पापास्रव भेद किये जा सकते हैं । "शुभः पुण्यस्य " इस सूत्र करके सामान्य रूप से ही शुभास्रव कहा गया है । संसारी जीवों के पुण्यास्रव प्रधान है। मोक्ष भी पुण्यास्रव पूर्वक होता है। अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध परिणतियां होने का क्रम है । अतः विशेष रूप से शुभास्रव को कहने के लिये अग्रिम सूत्र कहा जाता है । अथवा सद्वेद्य का आस्रव बतलाते हुये भूत और व्रतियों के ऊपर अनुकम्पा करना कहा गया था वहां नहीं प्रतीत हो पाता है वे कौन से व्रत हैं ? जिनके कि सम्बन्ध से यह जीव व्रती कहलाता है । इस कारण उन व्रतों का निर्धारण करने के लिये श्री उमास्वामी महाराज करके यह अग्रिम सूत्र कहा जाता है ।
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ॥१॥
हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रहों से जो विराम ले लेना है वह व्रत है । अर्थात् हिंसा, हिंस्य, हिंसक, हिंसाफ की आलोचना करते हुये द्रव्यहिंसा और भावहिंसा से स्वकीय परिणामों को हटा लेना हिंसाविरति नामक पहिला व्रत है । सत्य वचन और असत्य वचनों का विचार करते हुये अप्रशस्त कथन से विराम ले लेना दूसरा अनृतविरति व्रत है । दान, आदान व्यवहार के योग्य व्यापारों की आलोचना कर चोरी करने का परित्याग कर देना तीसरा स्तेयविरति व्रत है । मानुषी, दैवी, तिर्यंचिनी, या चित्र सम्बन्धी स्त्रियों या इसी प्रकार के पुरुषों की आलोचना कर कुशील का त्याग करते हुये ब्रह्मचर्य में स्थिर हो जाना चौथा अब्रह्मविरति व्रत है । चेतन, अचेतन, अंतरंग, बहिरंग, परिग्रहों की विवेचना कर उनमें मूर्छा का परित्याग करना पांचवां परिग्रहविरति व्रत है । स्वामीजी ने "अभिसंधिकृताविरतिर्योग्याद्विषयाद्व्रतं भवति" ऐसा कहा है । प्राप्ति योग्य स्वकीय विषयों से अभिप्रायकृत विरति करना व्रत माना गया है । क्वचित् सेव्य विषय में संकल्प पूर्वक नियम करना और अशुभकर्म से निवृत्ति करना तथा शुभ कर्म में प्रवृत्ति करना व्रत कहा गया है । "संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः । निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि” इति श्री आशाधरः ।
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