Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक- वार्तिक
आलोक होने के कारण यदि दिन में भोजन का विधान किया गया है तब तो प्रदीप, अग्निशिखा, मणि, चमकनेवाली गिड़ार, जुगनू, बिजली, चन्द्रमा, सर्च आदि प्रकाशकों के संभवते संते रात्रि में भी उस भोजन, पान करने का प्रसंग आ जावेगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि अग्नि, तेल, आदि के अनेक महान् आरंभ करने का दोष लग जावेगा, यदि आक्षेपकर्ता यों कहे कि स्वयं आरम्भ नहीं कर दूसरों के द्वारा किये गये प्रदीप आदि के संभव जाने पर तो आरम्भ का दोष नहीं लगता है । सड़क पर म्यूनिसपल्टी के प्रदीप जलते रहते हैं, चन्द्रमा, बिजली, आकाश में प्रकाशती रहती हैं; मंसूरी पर्वत पर रात के समय छेदों में से निकल कर कितनी ही गिड़ारें कीटभक्षणार्थ चमकती रहती हैं। इस
कोई आरम्भ नहीं करना पड़ता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि रात्रि में चंक्रमण करना, शुद्ध भोजन प्राप्त करना आदि का असंभव है । अर्थात् अन्तरंग में स्वकीय शास्त्रज्ञान तथा बहिरंग में आदित्य प्रकाश और इन्द्रियों द्वारा हुये परिज्ञान से परीक्षित किये मार्ग में चार हाथ भूमि को पहिले देख कर चल रहे यति महाराज शुद्ध भिक्षा को ग्रहण करते हैं यह प्रक्रिया रात में नहीं हो सकती है अतः गमन करने, ब्यर्थ यहां वहां घूमने-फिरने आदि का असंभव है । पुनरपि कोई विक्षेप उठावे कि आचार शास्त्र के उपदेश अनुसार दिन के समय ग्राम से जाकर किसी पात्र में भोजन या पेय को लाकर रात्रि में अपने स्थान पर उसको खा लेने का प्रसंग आजावेगा ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि इसका उत्तर कहा जा चुका है अर्थात् प्रदीप आदिका आरम्भ करना तदवस्थ है । संयम साधने की यह पद्धति नहीं है कि बाहर से लाकर घर पर खाना । यतियों के पास बर्तन भी नहीं हैं वे तो परिग्रहरहित हैं । अन्तराय और दोषों को टाल कर हाथ में ही दिये हुये आहार को ग्रहण कर हैं। एक स्थान से, दूसरे स्थान में ले जाने पर और कुछ देर तक धरा रहने पर वह भोजन जीवों का योनिस्थान बन जाता है । संयमी मुनि ऐसे भोजन को ग्रहण नहीं करते हैं अतः दिन में लाये हुये को रात में खा लेने का प्रसंग नहीं लगता है ।
स्फुटार्थाभिव्यक्तेश्च दिवाभोजनमेव युक्तं, तेनालोकितपानभोजनाख्या भावना रात्रिभोजनविरतिरेवेति नासावुपसंख्येया ।
एक बात यह भी है कि सूर्य का प्रकाश ही स्फुटरूप से अर्थों की अभिव्यक्ति करता है । भूमि, देश, दाता, गमन करना, अन्न पान में कोई पदार्थ पड़ गया या नहीं इत्यादि बातें दिन में स्पष्ट दीख जाती हैं। दीपक, बिजली, चन्द्रमा आदि के प्रकाश में स्पष्ट पदार्थ नहीं दीखता है। रात्रि के समय क्षुद्र की अधिक उत्पन्न होते हैं; भोजन, पान, पदार्थों में वे छोटे जीव गिर जाते हैं; त्रसहिंसा अधिक होती है । रात के खाने वालों में लोलुपता बढ़ जाती है । उदर की ग्राहक शक्ति मंद पड़ जाती है। क्योंकि पाचनशक्ति रात्रि के अवसर पर पूर्वभुक्त के पचाने में अधिक उपयुक्त हो जाती है। मुनिजन एक बार ही भोजन करते हैं अतः दिन में भोजन करना उनको अनुकूल पड़ सकता है। सभी अर्थों का स्फुट प्रकाश होता है । सूर्यालोक में योनिस्थान अल्प उपजते हैं अतः दिन में ही भोजन करना समुचित है । तिस कारण आलो - कितपानभोजन नाम की अहिंसावत की पाँचवीं भावना तो रात्रिभोजन त्याग ही है । अतः उस रात्रिभोजनविरति नाम के व्रत का उपसंख्यान नहीं करना चाहिये ।
किं पुनरनेन व्रतलक्षणेन व्युदस्तमित्याह ।
सभी लक्षण इतरव्यावर्तक होते हैं। लक्ष्य की अलक्ष्य से व्यावृत्ति करते रहते हैं । ऐसी दशा में यहाँ कोई प्रश्न करता है कि व्रत के इस लक्षण करके किसका व्युदास ( निराकरण ) किया गया है ?