Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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छठा-अध्याय
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अज्ञान का सम्बन्ध नहीं माना है अतः युक्त ऐसा पाठ भी हो तो कोई क्षति नहीं है क्योंकि उस मुक्त
'क्त जीव के सम्यग्ज्ञान के साथ तदात्मकपना हो जाने पर मिथ्याज्ञान, राग आदि का अत्यन्त उच्छेद हो गया है । वर्तमानकाल में किंचित् भी मिथ्याज्ञान नहीं है, भविष्य में भी मिथ्याज्ञान कथमपि नहीं उपज सकेगा यही मिथ्याज्ञान आदि का अत्यन्त उच्छेद है। उन द्रव्यावरणों का उदय होने पर उस समय आत्मा के अज्ञान, क्रोध, आदि भावावरण का सद्भाव पाया जाता है अतः सिद्ध होता है कि प्रवाह से प्रवर्त रहे ज्ञान आदि का अविद्या के उदय होने पर निरोध हो जाने से जैसे उस अविद्या को ज्ञान आदि का विरोधी मान लिया जाता है उसी प्रकार पौद्गलिक कर्म को भी ज्ञान आदि से विरुद्ध मान लिया जाय । मदिरा, अपथ्य भोजन, आदि पुद्गल इसके दृष्टान्त हैं । आत्मा के द्रव्य स्वरूप आवरण लग रहे हैं तभी भाव आत्मक आवरणों का सद्भाव पाया जाता है। अज्ञान आदि दोष और ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों का हेतुहेतुमद्भाव अनादिकाल से बीजांकुरवत् चला आ रहा है "दोषावरणयोर्हानिर्निशेषास्यतिशायनात्" इस देवागमस्तोत्र की कारिका का विवरण करते हुये ग्रन्थकार ने अष्टसहस्री में इस “कार्यकारण भाव" को अच्छा समझा दिया है।
___ कुतो द्रव्यावरणसिद्धिरिति चेत्, नात्मनो मिथ्याज्ञानादिः पुद्गलविशेषसंबंधनिबंधनस्तत्स्वभावान्यथाभावस्वभावत्वादुन्मत्तकादिहेतुकोन्मादादिवदित्यनुमानात् । मिथ्याज्ञानादिहेतुकापरमिथ्याज्ञानव्यभिचारान्नेदमनुमानं समीचीनमिति चेन्न, तस्यापि परापरपौद्गलिककर्मोदये सत्येव भावात् तदभावे तदनुपपत्तेः । परापरोन्मत्तकादिरससद्भावे तत्कृतोन्मादादिसंतानवत् । कामिन्यादिभावेनोद्भतैरुन्मादादिभिरनेकांत इति चेन्न, तेषामपि परंपरया तन्वीमनोहरांगनिरीक्षणादिनिबंधनत्वात् तदभावे तदनुपपत्तेः, ततो युक्तमेव तद् ज्ञानदर्शनप्रदोषादीनां तदावरणकर्मास्रवत्ववचनं युक्ति सद्भावाद्वाधकाभावाच्च तादृशान्यवचनवत् ।
यहाँ कोई आक्षेपकर्ता पण्डित पूंछता है कि जैनों के यहां द्रव्य आवरणों की सिद्धि भला किस प्रमाण से की जायेगी ? बताओ यों प्रश्न होने पर हम उत्तर करते हैं कि संसारी अत्मा के होरहे मिथ्याज्ञान, अहंकार, दुःख, भय, आदिक तो ( पक्ष ) विशेष जाति के पुद्गलों के सम्बन्ध को कारण मानकर उपजे हैं ( साध्य ) आत्मा के उन सम्यग्ज्ञान, मार्दव, अतीन्द्रिय, सुख आदि स्वभावों से अन्यप्रकार के वैभाविक भावों स्वरूप होने से ( हेतु ) उन्मत्त कराने वाले धतूरा, चण्डू, मद्य, आदिक हेतुओं से उपजे उन्मत्तता, चक्कर आना, तमारा, मद, आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त । इस अनुमान से द्रव्य आवरणों की सिद्धि कर दी जाती है। यदि यहाँ कोई इस अनुमान में यों दोष लगावे कि मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, आदि हेतुओं करके उपजे दूसरे मिथ्याज्ञानों से व्यभिचार हो जायेगा अर्थात-दूसरे मिथ्याज्ञानों में हेतु तो रह गया किन्तु पुद्गल विशेषों से उपजता स्वरूप साध्य नहीं रहा वहां पहिले के मिथ्याज्ञानों से (भावावरणों से ) दूसरे मिथ्याज्ञान उपजे हैं। कभी द्वेष से द्व प, दुःख से दुःख, क्रोध से क्रोध, अज्ञान से अज्ञान की धारायें चलती जाती हैं। इनमें पौद्गलिक कर्म कारण नहीं पड़ते हैं अतः व्यभिचार दोष हो जाने के कारण यह जैनों का अनुमान समीचीन नहीं है। श्री विद्यानन्द आचार्य कहते है कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वे दूसरे, तीसरे मिथ्याज्ञान भी उत्तरोत्तर पौद्गलिक कर्मों का उदय होते रहते सन्ते ही उपजे हैं यदि आत्मा में धारा प्रवाह रूप से उदय प्राप्त हो रहे वे पौद्गलिक कर्म नहीं होते तो उन मिथ्याज्ञानों की उत्पत्ति होना नहीं बन सकता था जैसे कि उत्तरोत्तर परिपाक प्राप्त हो रहे उन्मादक