Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक भाण्डागाराग्निसंशांति समं मुनिगणस्य यत् ।
तपःसंरक्षणं साधुसमाधिः स उदीरितः ॥१०॥ जिस प्रकार सम्पत्ति के भण्डार घर में आग लग जाने पर शीघ्र ही उसका उपशम किया जाता है क्योंकि अन्य स्थानों की अपेक्षा वह भण्डारा बहुत उपकास्क है। इसी के समान मुनि समुदाय के निर्द्वन्द्व तपश्चरण के ऊपर यदि किसी प्रकार से विघ्न उपस्थित हुआ होय तब उस तप का जो समीचीनतया रक्षण करना है वह साधुसमाधि कही गयी है।
गुणिदुःखनिपाते तु निरवद्यविधानतः। - तस्यापहरणं प्रोक्त वैयावृत्त्यमनिंदितं ॥११॥ गुणवाले साधु पुरुषों के ऊपर दुःख पड़ जाने पर निर्दोष विधि से जो उस दुःख का परिहार करना है वह तो निंदा रहित हो रहा वैयावृत्य अच्छा कहा गया है।
अर्हत्स्वाचार्यवर्येषु बहुश्रुतयतिष्वपि । जैने प्रवचने चापि भक्तिः प्रत्युपवर्णिता ॥१२॥ भावशुद्धयायुता शश्वदनुरागपररलं ।
विपर्यासितचित्तस्याप्यन्यथाभावहानितः ॥१३॥ श्री अहंत परमेष्ठियों में और श्रेष्ठ आचार्य महाराजों में तथा बहुत शास्त्रों के जानने वाले उपाध्याय यतियों में एवं जिनोक्त प्रवचन यानी शास्त्रों में भी जो सदा अनुराग में तत्पर होरहे भव्य जीवों करके भावशुद्धि से युक्त होरही अत्यर्थ भक्ति की जाती है वह अहंत आदि की भक्ति बखानी गयी चली आरही है । भक्ति की विशेषता यह है कि जिन पुरुषों के चित्त मिथ्याज्ञान करके विपर्यास को प्राप्त होरहे हैं उनके अन्य प्रकारों से होरहे मिथ्याभावों की हानि उस भक्ति करके हो जाती है।
आवश्यकक्रियाणां त यथाकालं प्रवर्तना'
आवश्यकापरिहाणिः षण्णामपि यथागर्म ॥१४॥ सम्पूर्ण सावध क्रियाओं का त्याग कर तित्त का एक आत्मानुभव में लगाये रखना सामायिक है। चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का श्रद्धापूर्वक विचार करना स्तव है। दो आसन वाली और बारह आवर्त वाली, तथा चार शिरोनति द्वारा नमस्कार वाली, शारीरिकक्रिया करते हुये मन,वचन, कायकी शद्धता पूर्वक देव, शास्त्र, गुरु की वंदना करना वन्दना है। पहिले लगे हये दोषों की निवृत्ति करना प्रतिक्रमण है। भविष्य में आनेवाले संभाव्यमान दोषों का प्रथम से ही त्याग कर देना प्रत्याख्यान है। काल की मर्यादा कर शरीर में ममत्व भाव की निवृत्ति कर देना कायोत्सर्ग है। इस प्रकार इन छैओं भी आवश्यक क्रियाओं का ( में ) यथायोग्य काल में आगम विधि अनुसार प्रवृत्ति करते रहना तो आवश्यकापरिहाणि है।