Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक उत्तरस्यास्रवः सिदधः सामर्थ्यात्तद्विपर्ययः ।
नीचैत्तिरनुत्सेकस्तथैवामलविग्रहः ॥१॥ जिस ही प्रकार परनिंदा आदिक नीचगोत्र के अनुरूप होरहे नीचगोत्र के आस्रव हैं उस ही प्रकार उनले विपरीत होरहे परप्रशंसा आदिक तो उत्तर गोत्र के आस्रव हैं। यह बात विशेष युक्ति का प्रतिपादन किये बिना सामर्थ्य से सिद्ध हो जाती है। तिस ही प्रकार नीचैर्वृत्ति और अनुत्सेक भी उच्चगोत्र के आस्रव हैं। उक्त सिद्धान्त का शरीर निर्मल है कोई दोष नहीं है अथवा निर्दोष साधनों करके मनःशुद्धि और आत्मशुद्धि का कारण शरीर की शुद्धि बनाये रखना यह भी उच्चगोत्र का आस्रव है।
यथैव हि नीचैर्गोत्रानुरूपो नीचैर्गोत्रस्यास्रवः परनिंदादिस्तथोच्चैर्गोत्रानुरूपः परप्रशंसादिरुच्चैर्गोत्रस्येति न कश्चिद्विरोधः ।
कारण कि जिस ही प्रकार नीचगोत्र के अनुकूल होरहे परनिंदा आदिक नीचगोत्र के आस्रव कह दिये हैं। तिस ही प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों में पाये जारहे ऊँचे गोत्रों के अनुरूप हुये परप्रशंसा, आत्मनिंदा आदिक तो उच्चगोत्र के आस्रव हैं। यों लौकिक और शास्त्रीय न्याय से इस सूत्रोक्त सिद्धांत का कोई विरोध नहीं आता है। उक्त वार्तिक में इस सूत्रोक्त का अनुमान बनाया जा सकता है । तर्करसिक विद्वानों को प्रत्यक्षित या आगमगम्य विषयों में भी अनुमान प्रयोग अभिरूप जचता है । गोत्रकर्म के अनन्तर निर्दिष्ट किये गये आठवें अन्तराय कर्म का आस्रव क्या है ? ऐसी बुभुत्सा प्रवर्तने पर परोपकारी सूत्रकार इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२७॥ दान आदि शुभ कार्यों में विघ्न कर देना अन्तराय कर्म का आस्रव है। दानादिविहननं विघ्नः तस्य करणं दानायंतरायस्यास्रवः प्रत्येयः । कुत इत्याह
दान आदि अर्थात् दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य का विशेषतया हनन करना विघ्न है उस विघ्न का करना दानान्तराय, लाभान्तराय आदि अन्तराय कमों का आस्रव कारण होरहा समझ लेना चाहिये, किस कारण से या किस युक्ति से इस सूत्र का कहा हुआ विषय पर्यालोचित समझा जाय ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार उत्तरवर्ती दो वार्तिकों को कहते हैं।
सर्वस्याप्यंतरायस्यासूवः स्यात्प्राणिनामिह । विघ्नस्य कारणात्तस्य तथायोग्यत्वनिश्चयात् ॥१॥ प्रवर्तमानदानादि प्रतिषेधस्य भावना। आसावकोऽन्तरायस्य दृष्टतद्भावना यथा ॥२॥