Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक - वार्तिक
कायक्लेश का करना तप है । गुणवान् जीवों के ऊपर दुःख पड़ने पर निर्दोष विधि करके उस दुःख का परिहार करना वैयावृत्य है । अर्हत, आचार्य, उपाध्याय और शास्त्र में भावविशुद्धि युक्त अनुराग करना भक्ति है। छह आवश्यक क्रियाओं में काल का अतिक्रमण नहीं कर प्रवर्तना आवश्यकापरिहाणि हैं । विलक्षण ज्ञान, उत्कृष्टतपश्चर्या, जिन पूजा आदि विधियों करके जैन धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है । जैसे नयी ब्याई हुयी गाय का अपने बछड़े पर अनुपम स्नेह होता है उसी प्रकार अपने साधर्मी भाइयों को देख कर या प्रकृष्ट वचन वाले विद्वानों का प्रसंग मिलने पर स्नेहार्द्र चित्त हो जाना प्रवचनवत्सलता है । ये सोलह कारण सम्पूर्ण होयं अथवा दर्शन विशुद्धि के साथ अकेले दुकेले भी होयं, समीचीन भावना किये गये संते तीर्थकर नाम कर्म के आस्रव हेतु समझ लेने चाहिये ।
के पुनर्दर्शनविशुद्धयादय इत्युच्यते;
कोई शिष्य पूँछता है कि दर्शन विशुद्धि आदिक फिर कौन हैं ? ऐसा प्रश्न प्रवर्तने पर ग्रन्थक द्वारा उत्तर वार्तिकों करके समाधान कहा जाता है ।
जिनोपदिष्टे नैन थ्यमोक्षवर्त्मन्यशंकनं । अनाकांक्षणमप्यत्रामुत्र चैतत्फलाप्तये ||१|| विचिकित्सान्यदृष्टीनां प्रशंसा संस्तवच्युतिः ।
मौढ्यादिरहितत्वं च विशुद्धिः सा दृशो मता ॥२॥
श्री अहंत परमेष्ठी भगवान् करके उपदेशे गये निर्ग्रन्थपना स्वरूप मोक्षमार्ग जो शंकादि रहित रुचि करना है वह सम्यग्दर्शन की विशुद्धि मानी गयी है । जिस दर्शनविशुद्धि में सातभय, अथवा यह जिनोपदिष्ट तत्व है या नहीं यों शंका का निराकरण कर दिया जाता है । इह लोक और परलोक अमुक फल की प्राप्ति के लिये भोगोपभोगों की आकांक्षा भी हट जाती है । गुणों में प्रीति करते हुये ग्लानि की युति हो जाती है । अन्यमिध्यादृष्टियों की प्रशंसा और भली स्तुति की प्रच्युति हो जाती है । मूढता आदि से रहितपना है । यों निःशंकितत्व, निःकांक्षता, विचिकित्साविरह, अमूढदृष्टिता, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना ये आठ अंग पाये जाते हैं। वह दर्शन की विशुद्धि आम्नायधारा से मान्य चली आ रही है । ये असंख्य जीव जिनशासन के अवलम्ब बिना नरक, निगोद, गर्त में डूबते जारहे हैं। इनका उद्धार कैसे किया जाय ? इस प्रकार संसार समुद्र से उतारने की तीव्र भावना इसके बनी रहती है।
संज्ञानादिषु तद्वत्सु चादरोऽर्थानपेक्षया । कषायविनिवृत्तिर्वा विनयैर्मुनिसंमतैः ॥३॥ सम्पन्नता समाख्याता मुमुक्षूणामशेषतः । सददृष्ट्यादिगुणस्थानवर्तिनां स्वानुरूपतः ॥४॥
समीचीन ज्ञान, चारित्र, आदि गुणों में और उन गुणवाले पुरुषों में किसी प्रयोजन की नहीं अपेक्षा करके जो आदर करना है वह विनय है । मुनियों के द्वारा श्रेष्ठ मानी गयी विनयों करके जो सम्पत्तियुक्तता है वह विनयसम्पन्नता अच्छी बखानी गयी है । अथवा अभिमान आदि कषायों की