Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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छठी-अध्याय
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स्वयं अपने में या पर में अथवा दोनों में स्थित हो रहे दुःख, शोक, ताप, आक्रंदन, बध, परिदेवन, ये परिणतियाँ असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं । संसारी जीव का पीड़ा स्वरूप परिणाम दुःख है । अनुग्रह करने वाले चेतन या अचेतन पदार्थ के सम्बन्ध का विच्छेद होने पर दीनता परिणाम शोक है। तिरस्कार आदि को निमित्त पाकर हये कलषित परिणाम वाले जीव का मानसिक पश्चाताप करना ताप कहा जाता है । परिताप से उत्पन्न हुये बहुत रोना, आंसू डालना, विलाप करना, अंग विकार आदि करके प्रकट क्रन्दन करना आक्रन्दन है। आयुःप्राण, इन्द्रियप्राण, बलप्राण और श्वासोच्छ्वास प्राण का वियोग कर देना वध है , संक्लेश परिणामों का अवलम्ब कर गुणस्मरण पूर्वक बखानते हुये जो स्वयं
और दूसरों को अनुग्रह करने की अभिलाषा कराने वाला दयनीय रोना है वह परिदेवन है। ये स्व में होंय या क्रोध आदि के आवेश से दूसरे में उपजा दिये जाय अथवा कषाय वश दोनों में उपज जांय तब असद्वेद्य कर्म का प्रकृत जीव के आस्रव हो जाता है ।
पीडालक्षणः परिणामो दुःखं. तच्चासद्वद्योदये सति विरोधि द्रव्याद्यपनिपातात् । अनुग्राहकबांधवादिविच्छेदे मोहकर्मविशेषोदयादसवेद्य च वैक्लव्यविशेषः शोकः, स च बांधवादिगताशयस्य जीवस्य चित्तखेदलक्षणः प्रसिद्ध एव । परिवादादिनिमित्तादाविलांतःकरणस्य तीव्रानुशययस्तापः, स चासद्वे योदये क्रोधादिविशेषोदये च सत्युपपद्यते । परितापजाश्रुपातप्रचुरविलापांगविकाराभिव्यक्त क्रंदनं, तच्चासद्वद्योदये कषायविषयोदये च प्रजायते । आयुरिंद्रियबलप्राणवियोगकरणं वधः, सोऽप्यसद्वद्योदये च सति प्रत्येतव्यः। संक्लेशप्रवणं स्वपरानुग्रहणं हा नाथ नाथेत्यनुकंपाप्रायं परिदेवनं, तच्चासद्वेद्योदये मोहोदये च सति बोद्धव्यं ।
पीड़ा स्वरूप परिणति दुःख कहा जाता है । वह दुःख तो असवेद्य कर्म का उदय होते सन्ते विरोधी द्रव्य आदि का प्रसंग मिल जाने से उपज जाता है । अनुग्रह करने वाले बन्धुजन, इष्ट पदार्थ आदि का वियोग हो जाने पर मोहनीय कर्म का विशेष होरहे शोक का उदय होने से और पूर्व संचित असातावेदनीय का उदय होते सन्ते हुआ विक्लव परिणाम शोक है। बांधव आदि में जिस जीव का अभिप्राय संसक्त होरहा है उस बन्धुजन का वियोग हो जाने पर जीव के चित्त को खेद होजाना स्वरूप वह शोक प्रसिद्ध ही है । निंदा, तिरस्कार, पराभव आदि निमित्तों से हुये कलुषित अन्तःकरण के धारी जीव का तीव्र पश्चात्ताप करना ताप है तथा उस ताप का होना अन्तरंग में असद्वेद्य कर्म का उदय होने पर और चारित्रमोहनीय को क्रोध आदि विशेष प्रकृतियों का उदय हो जाने पर बन जाता है। परिताप से उपजे प्रचुर अश्रुपात वाले विलाप, अंग विकार आदि करके प्रकट चिल्लाना आक्रन्दन है । वह आक्रन्दन अन्तरंग में पूर्व संचित असदवेद्य का उदय होने पर और कषाय विशेष का उदय होते सन्ते ठीक उपज जाता है। आयुः, इन्द्रिय, बल; श्वासोच्छ्वास, इन प्राणों का वियोग करना बध है। वह बध भी असवेंदनीय कर्म का उदय होते सन्ते हो जाना समझ लेना चाहिये। तथा संक्लेश परिणामों में तत्पर होरहा और अपने या दूसरों को अनुग्रह कराने वाला एवं हाय नाथ कहाँ गये, हाय नाथ कहां हो, इस प्रकार बहुभाग अनुकम्पा को लिये हुये प्रलाप करना परिदेवन कहा गया है। और तैसे ही वह परिदेवन भी आत्मा में असवेंदनीय कर्म का उदय होने पर और मोहनीय कर्म का उदय होते उपज रहा समझ लेना चाहिये।