Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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छठा-अध्याय स्वभाव से ही यानी प्रकृति से ही गुरु के उपदेश बिना ही जो मृदुता है अर्थात् मान नहीं करना है वह भी मनुष्य सम्बन्धी आयु का आस्रव है।
उपदेशानपेक्षं मार्दवं स्वभावमार्दवं । एकयोगीकरणमिति चेत्, ततोऽनंतरापेक्षत्वात् पृथक्करणस्य । तेन देवस्यायुषोऽयमास्रवः प्रतिपादयिष्यते । कीदृशं तन्मानुषस्यायुष आस्रव इत्याह
उपदेश के बिना ही जैसे व्याघ्र, भेड़िया आदि में स्वभाव से क्रूरता है उसी प्रकार उपदेश की नहीं अपेक्षा रखता हुआ कोमल परिणाम भी किन्हीं किन्हीं जीवों में पाया जाता है। उपदेश की नहीं अपेक्षा रखता हुआ मृदुपना स्वभावमार्दव है । यहाँ कोई आक्षेप करता है कि दो सूत्र बनाने की क्या आवश्यकता है ? “अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुषस्य" दो योग का इस प्रकार एक योग करना ही उपयोगी जचता है । यों आक्षेप करने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि उस मनुष्य आयु के आस्रव से अव्यवहित उत्तर काल में कहे जाने वाले देव आयु की अपेक्षा से इस सूत्र को पृथक् किया गया है। तिस कारण यह स्वभाव का मृदुपना देव संबंधी आयु का आस्रव हुआ समझा दिया जावेगा । पुनः कोई प्रश्न उठाता है कि वह स्वभाव का मृदुपना किस प्रकार का मनुष्य सम्बन्धी आयु का आस्रव हो सकेगा ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार उत्तर वार्तिक को कहते हैं।
स्वभावमार्दवं चेति हेत्वंतरसमुच्चयः।
मानुषस्यायुषस्तद्धि मिश्रध्यानोपपादिकम् ॥१॥ "स्वभावमार्दवं च” इस सूत्र में पड़े हुये च शब्द का अर्थ समुच्चय है। इस कारण मनुष्य सम्बन्धी आयु के आस्रावक होरहे दूसरे हेतु का भी समुच्चय हो जाता है । अथवा स्वभावमृदुता से मनुष्य आयु और देव आयु का आस्रव होना समझा दिया जाता है। साथ ही विनीतस्वभाव, प्रकृतिभद्रता, संतोष, अनसूया, अल्पसंक्लेश, गुरु देवता पूजा आदि कारणों का भी संग्रह हो जाता है। जब कि वह स्वभाव मृदुपना शुभ, अशुभ ध्यानों से मिश्रित होरहे ध्यान से अन्वित होकर उपज रहा हो तब मनुष्य आयु का आस्रावक हो जायगा अन्यथा नहीं।
क्या अल्प आरंभपरिग्रहसहितपना और स्वभाव मार्दव ये दो ही मनुष्य आयु के आस्रव हैं ? अथवा क्या अन्य भी मनुष्य आयु का आस्रव है ? जो कि उपलक्षण मार्ग से नहीं संग्रह किया जा सके ऐसी आशंका प्रवर्तने पर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं
निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ॥१९॥ दिग्वत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण, अतिथिसंविभाग इन सात शीलों से और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग इन पाँच व्रतों से रहितपना तो नरक आयु, तिर्यक आयु, मनुष्य आयु और देव आयु इन सभी आयुओं का आस्रावक हेतु है ।
चशब्दोऽधिकृतसमुच्चयार्थः। सर्वेषां ग्रहणं सकलास्रवप्रतिपच्यर्थ । देवायुषोऽपि प्रसंग