Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
द्वारा ईर्यापथ का निरूपण नहीं कर चुके हैं। अर्थात्-ईर्यापथ का व्याख्यान करने के लिये न्यारे सूत्रों के बनाने की आवश्यकता नहीं है। शब्दों की सामर्थ्य से ही जो पदार्थ अर्थापत्ति या परिशेष द्वारा सिद्ध हो जाता है उसको सूत्रों करके सूचन करने में कोई फल विशेष नहीं है। दूसरा दोष यों भी है यो बड़ा भारी अतिप्रसंग भी होजायेगा अर्थात्-छोटे-छोटे प्रमेयों को भी यदि सूत्रों करके कहा जायेगा तो क्रिया, कारक सभी पदों का प्रयोग करना अनिवार्य होगा अनुवृत्ति, आकर्षण, अध्याहार, अधिकार, उपस्कार, इनके द्वारा प्राप्त होचुके अर्थोंको कहने के लिये भी सूत्र में अनेक पदों का प्रयोग करना पड़ेगा यों सूत्र क्या वह विस्तृत टीकाग्रन्थ बन जायेगा, पुनरुक्त दोषों की भरमार आपड़ेगी अतः सामर्थ्य से सिद्ध होरहे पदार्थ के लिये मुनि का कर्म मौनव्रत ही श्रेष्ठ है । श्री माणिक्यनन्दि आचार्य ने बहुत अच्छा लिखा है "तत्परमभिधीयमानं साध्यसाधने संदेहयति” व्यर्थ अधिक बोलना अच्छा नहीं है, गम्भीर अल्प उच्चारण करने से ही वचनों की शक्तियाँ रक्षित रहती हैं उदात्त अर्थ वाले पद की विशद व्याख्या कर चेंथरा कर देने से श्रोताओं की ऊहापोह शालिनी बुद्धि का विकास नहीं होने पाता है अन्न का कुटकर, पिस कर, मड़ कर, सिककर, झुरकुट होचुका है फिर भी रोटी, पूड़ी, पुआ, गूझा, आदि को पुनः शिला लोढ़ी करके बट कर या खल्लड़ से कूट कर खाने वालों को वह आनन्द नहीं आ पाता है जो कि स्वकीय दाँतों से चबाकर, लार मिलाते हुये भोक्ता को आस्वादन का सुख मिलता है हाँ दन्तरहित बुड्ढों की बात न्यारी है। अतः ईर्यापथ को विशेष रूप से कहने की सूत्रकार ने आवश्यकता नहीं समझी है। ईर्यापथ आस्रव के विशेषों को गुनः कषायरहित पन और योगों की विशेषताओं से समझ लेना चाहिये। बड़ी अवगाहना वाले या प्रक्रष्ट परिस्पन्दवाले मनि के अधिक सातावेदनीय कर्म प्रदेशों का आस्रव होगा, मन्द योग होने पर अल्प ईर्यापथ आस्रव होगा । कषायों की उपशान्ति और क्षीणता से भी सम्भवतः ईर्यापथ में अन्तर पड़ जाय जैसे कि ग्यारहमे या बारहमे गुणस्थान वाले मुनि की निर्जरा में अन्तर है।
इति षष्ठाध्यायस्य प्रथममाह्निकम्
इस प्रकार छठमे अध्याय का प्रकरणों का समुदाय स्वरूप प्रथम आह्निक यहाँ तक परिपूर्ण हुआ।
बीजांकुरवदनादी भावद्रव्यासूवी मिथो हेतू ।
संक्लेशविशुद्धयङ्ग भ्रमति भवे जीव आत्मसात्कुर्वन् ॥१॥ सामान्य रूप से कर्मों के आस्रवों के भेदों को सूत्रकार कह चुके हैं । अब कोई जिज्ञासु पूँछता है कि सम्पूर्ण साम्परायिक आस्रवों को आत्मा क्या एक ही प्रकार के प्रणिधान करके उपार्जन कर लेता है ? अथवा क्या अनेक कर्मों के आस्रवणार्थ आत्मा के विशेष व्यापार होते हैं ? बताओ ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर कर्मों के विशेष आस्रवभेदों के हेतुभूत आत्मपरिणामों की विवेचना करते हुये सूत्रकार प्रथम ही आदि के ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव भेदों की प्रतिपत्ति कराने के लिये इस सूत्र को कहते हैं।
तत्प्रदोषनिन्हवमात्सर्यांतरायासादनोपघाताज्ञानदर्शनावरगयोः॥१०॥