Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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छठा-अध्याय
करके उन आस्रवों का कथन करना तो पुनरुक्त दोष ही है इस प्रकार आशंका प्रवर्तने पर ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी करके यह समाधान कहा जाता है।
विशेषेण पुनर्ज्ञानदृष्टयावरणयोर्मताः।
तत्प्रदोषादयः पुंसामास्वास्तेऽनुभागगाः ॥१॥ विशेष करके सूत्रकार द्वारा जीवों के फिर ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव होरहे जो तत्प्रदोष, तन्निन्हव, आदिक माने जा चुके हैं वे सब आस्रव अनुभाग को प्राप्त होरहे सन्ते समझ लेने चाहिये । भावार्थ-तत्प्रदोष आदि करके ज्ञानावरण आदि का आस्रव होरहे अवसर पर अन्य भी वेदनीय आदि कर्म आते रहते हैं किन्तु प्रदोप आदि के होने पर ज्ञानावरण कर्मों से अनुभाग अधिक पड़ेगा शेष कर्मों में न्यून अनुभाग बंध होगा अतः प्रदोष आदि करके ज्ञानावरण कर्मों के प्रकृतिबंध और प्रदेश बंध होजाने का नियम नहीं है फिर भी अनुभाग बंध का नियम कर देने से तत्प्रदोष आदि और ज्ञानावरण आदि कर्मों के आस्रव का कार्य कारण भाव विचार लिया जाता है।
सामान्यतोऽभिहितानामत्यास्रवाणां पुनरभिधानं विशेषतः प्रत्येकं ज्ञानावरणादीनामष्टानामप्यास्रवप्रतिपत्त्यर्थम् । एते वास्रवाः सर्वेऽनुभागगाः प्रतिपत्तव्याः कषायास्रवत्वात् । पुंसामिति वचनात् प्रधानादिव्युदासः।
यद्यपि सामान्य से आस्रवों को कहा जा चुका है फिर भी उनका इस छठे अध्याय में दशमे सूत्र से प्रारम्भ कर सत्ताईसमे सूत्र तक विशेष रूप से कथन करना तो प्रत्येक ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों के भी आस्रव होने की प्रतिपत्ति कराने के लिये है। ये विशेष रूप से कहे जा रहे सभी आस्रव अनुभाग बंध के अनुकूल शक्ति को प्राप्त कर रहे समझ लेने चाहिये क्योंकि “ठिदि अणुभागा कसाअदो होंति" प्रदोष, शोक, माया, आदि कषायों अनुसार हुये ये आस्रव हैं। कषायों का प्रभाव कर्मों की अनुभाग शक्ति पर पड़ता है अतः व्यभिचार या अतिप्रसंग दोष को स्थान नहीं मिल पाता है। इस वार्तिक में "पुंसां" यानी जीवों के आस्रव होना माना गया है अतः "पुंसां" इस कथन से प्रधान (प्रकृति या अवस्तुभूत संतान आदि के आस्रव होने का निराकरण कर दिया है। अर्थात्-कपिल मतानुयायी आत्मा को सर्वदा शुद्धनिरंजन स्वीकार करते हैं। सत्त्वगुण, रजो गुण, तमोगुण, स्वरूप प्रकृति के ही आस्रव के बंध, संसार, मोक्ष, ये व्यवस्थायें स्वीकर करते हैं । बौद्ध सन्तान के आस्रव होना कहते हैं । यहाँ जीवों के कर्मों का आस्रव कह देने से इनका निराकरण होजाता है।
कथं पुनस्ते तथावरणकर्मास्रवहेतव इत्युपपत्तिमाह ।
-अब यहाँ कोई तर्की पूछता है कि वे प्रदोष आदि फिर उन आवरण कर्मों के आगमन हेतु भला किस प्रकार समझे जा सकते हैं ? या किस प्रमाण से उनका हेतुहेतुमद्भाव निर्णीत कर लिया जाय? बताओ। इस प्रकार तर्कणा उपस्थित होने पर ग्रन्थकार उसकी युक्ति पूर्वक सिद्धि करे देते हैं।
यत्प्रदोषादयो ये ते तदावरणपुद्गलान् । नरान्नयंति बीभत्सुप्रदोषाद्या यथा करान् ॥२॥