Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक जिस विषय के जो प्रदोष आदि होंगे वे उस विषय का आवरण करने वाले पुद्गलों को कषायवान आत्मा के निकट प्राप्त करा देते हैं जिस प्रकार कि हिंसक या जुगुप्सित पदार्थ में हुये प्रदोष आदिक इन हाथों को वहाँ ले जाते हैं । अर्थात्-"जीवस्य ज्ञानविषयकप्रदोषादयः (पक्षः) ज्ञानावरणादिपुद्गलान जीवान्नयन्ति (साध्यं) ज्ञानादिप्रदोषत्वात् (हेतुः) ये यत्प्रदोषादयः ते तदावरणपुद्गलान जीवान्नयन्ति ( द्विकर्मक णिच् प्रापणे धातु ) यथा बीभस्सुप्रदोषाद्याः करान् नयन्ति (व्याप्तिपूर्वकमुदाहरणम्) जीव के ज्ञानादि विषयों में होरहे प्रदोष, निह्नव, आदिक (पक्ष) संसारी आत्मा में ज्ञानावरण आदि पुद्गलों को प्राप्त करा देते हैं (साध्य) क्योंकि ज्ञान आदि में हुये ये प्रदोष आदि हैं (हेतु) जो जिसमें प्रदोष आदि हुये हैं वे उस उस गुण का आवरण करने वाले पुद्गलों को जीवों से चुपटा देते हैं व्याप्ति) जैसे कि ग्लानियुक्त पदार्थ में हुये प्रदोष आदि अपनी नाक या आँख के निकट हाथों को प्राप्त करा देते हैं (अन्वय दृष्टान्त) । लज्जायुक्त स्त्री लज्जा कराने वाले पुरुष को देख कर झट हाथ उठा कर अपना चूंघट खींच लेती है । ग्लानि कारक, भयकारक, हिंसक या अतीव अग्राह्यपदार्थ में प्रदोष, निह्नव, आदि होजाते हैं तब कषायवान् आत्मा शीघ्र अपने हाथों को अपने पास खींच लेता है या हाथों से उन घृणित पदार्थों को ढंक देता है यों अनुमान प्रमाण से इस सूत्रोक्त सिद्धान्त की उपपत्ति कर दी गई है।
ये यत्प्रदोषादयस्ते तदावरणपुद्गलानात्मनो ढौकयंति यथा बीभत्सुस्वशरीरप्रदेशप्रदोषादयः करादीन् । ज्ञानदर्शनविषयाश्च कस्यचित्प्रदोषादय इत्यत्र न तावदसिद्धो हेतुः क्वचित्कदाचित्प्रदोषादीनां प्रतीतिसिद्धत्वात् । नाप्यनैकांतिको विपक्षवृत्त्यभावात् । अशुद्धयादिपूतिगंधिविषयैः प्रदोपादिभिस्तदन्यप्राणिविषयकरायावरणाढीकनहेतुभिर्व्यभिचारीति चेन्न, घ्राणसंबंधदुगंधपुद्गलप्रदोषादिहेतुकत्वात् तत्पिधायककरायावरणढौकनस्य, दोषाधभावे तदधिष्ठानसंभूतवाह्याशुच्यादिगंधप्रदोषानुपपत्तेः । तद्विषयत्वपरिज्ञानायोगात् तदन्यविषयवत् ।
जो जिस विषय में प्रदोष आदि हुये हैं वे उस विषय का आवरण करने वाले पुद्गलों को जीवों के पास ले जाते हैं जिस प्रकार कि जुगुप्सित अपने शरीर के प्रदोषों में हुयीं प्रदोष, निह्नव, आदि परिणतियां अपने हाथ, पांव, आदि को उस स्थान पर ले जाती हैं ज्ञान और दर्शन विषय में हुये किसी जीव के प्रदोष आदि हैं इस कारण उस जीव के निकट ज्ञानावरण, दर्शनावरण पुद्गलों का आस्रव करा देते हैं इस प्रकार पांच अवयवों वाला यह अनुमान है। इस अनुमान में कहा गया हेतु असिद्धहेत्वाभास तो नहीं है क्योंकि किसी न किसी कषायवान आत्मा में कभी न कभी पिशुनता आदि दोषों की प्रतीति हो जाना सिद्ध है अतः प्रदोष आदिकों का सद्भाव पाया जाना हेतु प्रदुष्ट आत्मा में रहता है अतः स्वरूपासिद्ध नहीं है । यद्विषय प्रदोषादित्व यह हेतु व्यभिचारी भी नहीं है क्योंकि विपक्ष में वृत्ति होजाने का अभाव है जो कषाय रहित जीव आवरण पुद्गलों का आस्रव नहीं करते हैं उन में प्रदोष आदि नहीं पाये जाते हैं। यदि यहां कोई यों कहे कि अशुद्धि ग्रस्त, घृणित आदि दुर्गन्ध विषयों में हुये प्रदोष आदिक तो उनसे अन्य प्राणियों के विषयभूत हाथ आदि आवरणों के प्राप्त कराने के कारण हो रहे हैं अतः इन अनिष्ट गंध वाले पदार्थों में हुये प्रदोष आदिकों करके जैनों का हेतु व्यभिचारी हुआ। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि घ्राण इन्द्रिय में सम्बन्धी होगये दुर्गन्धी पुद्गल विषय में हुये प्रदोष आदिक ही उस घ्राण को ढकने वाले हाथ, वस्त्र, आदि आवरणों की गति प्रेरणा कराने के हेतु हैं दोष आदिकों के नहीं होने पर उनके आश्रय से उत्पन्न हुये बहिरंग अशुद्ध आदि गंधों में प्रदोष हो जाना नहीं