Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक घ, घ, घ, प्रत्यय कर निर्वर्तना आदि शब्दों का साधन कर लिया जाय। समानाधिकरणपने करके अथवा व्यधिकरणपने करके उद्देश्यदल का विधेयदल होरहे अधिकरण के साथ सम्बन्ध कर लिया जाय क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार उद्देश्य विधेयदलों का कथंचित् भेद अभेद आत्मक सम्बन्ध बन रहा है। अर्थात्-ये निर्वर्तना आदि शब्द जब कर्म में प्रत्यय कर साधे गये हैं तब तो निर्वर्तना और अजीवाधिकरण का समानाधिकरणपने से अन्वय किया जाता है जो निर्वर्तना बनाई जा चुकी है वही तो अधिकरण होरहा आस्रव का अवलम्ब है किन्तु जब निर्वर्तना आदि शब्द भाव में साधे गये सन्ते शुद्ध धातु अर्थ को कह रहे हैं तब व्यधिकरणपने से सम्बन्ध होगा अधिकरण में निर्वर्तना आदि रहते हैं यानी इन भावों से अधिकरण विशिष्ट होरहा है “द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः" इस पद का विग्रह यों किया जाय, पहिले "द्वौ च चत्वारश्च द्वौ च त्रयश्च"यों इतरेतर द्वन्द्व समास कर “द्विचतुर्द्धित्रयः" यह पद बना लिया जाय पुनः द्विचतुर्द्धित्रयः भेदाः एषां ते "द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः” यों अन्य पदार्थ को प्रधान करने वाली बहुव्रीहिसमासवृत्ति करते हुये निर्देश हुआ जान लेना चाहिये।
कश्चिदाह-परवचनमनर्थकं पूर्वत्राद्यवचनात्, पूर्वत्राद्यवचनमनर्थकमिह सूत्रे परवचनात्तयोरेकतरवचनाद्वितीयस्यार्थापत्तिसिद्धेः पूर्वपरयोरन्योन्याविनाभावित्वात् । न चेयमर्थापत्तिरनैकांतिकी क्वचिद्व्यभिचारचोदनात् सर्वत्र व्यभिचारचोदनायाः प्रयासमात्रत्वात् परस्परापेक्षयोर व्यभिचारात् ।
यहाँ कोई पण्डित लम्बा चौड़ा पूर्वपक्ष उठाकर कह रहा है कि इस सूत्र में पर शब्द का कथन करना व्यर्थ है क्योंकि पूर्ववर्ती “संरम्भ आदि" सूत्र में आद्य शब्द को कण्ठोक्त किया गया है जब संरम्भ आदिक आदि के जीवाधिकरण हैं तो बिना कहे ही अर्थापत्ति से या परिशेष न्याय से सिद्ध होजाता है कि निर्वर्तना आदिक दूसरे अजीवाधिकरण हैं संक्षिप्त सूत्र में ऐसी छोटी छोटी बातें कहां तक कहते फिरोगे । अथवा इस सूत्र में यदि पर शब्द का कथन करते हो तो पहिले के "आद्यं संरम्भ" आदि सूत्र में आद्य शब्द का निरूपण व्यर्थ है क्योंकि उन पर या आद्य दोनों में से किसी एक का कथन कर देने से परिशिष्ट द्वितीय की अर्थापत्ति से ही सिद्धि होजाती है कारण कि पूर्व और पर दोनों का परस्पर में अविनाभावसहितपना है किसी भी एक को कह देने से दूसरे अविनाभावी का विना कहे ही परिज्ञान हो जाता है। कश्चित् के ऊपर यदि कोई यों कहे कि यह अर्थापत्ति तो व्यभिचार दोष वाली है देखिये बादलों के गर्जने से कदाचित् मेघ बरस जाता है और कभी नहीं भी बरसता है इसी प्रकार काली घटा वाले मेघों के घिर जाने पर भी कभी कभी वृष्टि नहीं होपाती है अज्ञात की ज्ञप्ति कराने वाले या सचना देरहे स्वर, ताराकंप, स्वप्नदर्शन, शकुन होना, आंख लहकना, शनि, राहु, दशायें आदि ज्ञापक सूचक हेतुओं के व्यभिचार होरहे देखे जाते हैं भरे घड़ों के मिल जाने पर भी कार्य बिगड़ जाते हैं डेरी सूधी आंख लहकने पर भी विपरीत फल मिलता है हथेली के खुजाने पर भी रुपया नहीं मिलता है अतः कोराअनुमान (अन्दाज) लगाते फिरना उचित नहीं है । इस कटाक्ष के उत्तर में कश्चित् की ओर से यह समाधान है कि अर्थापत्ति प्रमाण यह व्यभिचार दोष वाला नहीं है किसी किसी अर्थापत्त्याभास में व्यभिचार का प्रश्न उठा देने से सभी निर्दोष अर्थापत्तियों में भी व्यभिचार आजाने का कुचोद्य उठाना केवल व्यर्थ परिश्रम करते रहना है वृष्टि उत्पादक घन घटाओं से अवश्य वृष्टि होवेगी यदि कोई नहीं वृष्टि बरसाने वाली या आंधी आदि प्रतिबन्धकों वाली मेघ मालाओं को नहीं पहिचान सके तो इस अपनी भूल को