Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक- वार्तिक
एकान्त के मन्तव्य या भ्रान्त ज्ञानों के स्वरूप का निषेध कर देने पर तो सभी प्रकार प्रतीतियों से विरोध आवेगा स्वसम्वेद्य होरहे मिथ्यादर्शन या मिथ्याज्ञानका अपलाप नहीं किया जा सकता है । असत्य भाषी पुरुष को मार डालना नहीं चाहिये, हाँ उसको दूषित या अपराधी कह सकते हो क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म का उदय होने पर प्रत्येक श्रात्मा में सत् असत्, आदि एकान्तों के अभिनिवेश स्वरूप मिथ्यादर्शन विशेष का वेदन किया जा रहा है। उस स्वसम्बेद्य पदार्थ का निषेध नहीं किया जा सकता है, हाँ उस एकान्त आग्रह को विषय-रहित साधने पर तो प्रतीतियों वाधा नहीं श्राती है । वस्तु में प्रतीयमान होरहे सत्व, असत्व, आदि अंशों को धर्म मान लिया जाता है उनमें सर्वथापन का निषेध यों करा दिया जाता है. कि सभी प्रकारों मे सत्व या प्रसत्व आदिक एकान्तों के अभिनिवेश का विषय होरहा यह वस्त्वंश सर्वथा नहीं है। क्योंकि विरोध प्रजावेगा, हां कथंचित् वह वस्त्वंश है । अर्थात् — जो सर्वथा है वह वस्तु का प्रश नहीं और जो वस्तु का अंश है । वह सर्वथा एकान्त स्वरूप नहीं । हां कोई भी सत्र प्रादिक बड़ी सुलभता से कथंचित् वस्तु के अश होसकते हैं, कोई विरोध नहीं आता है ।
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एतेन प्रधानादिप्रतिषेधो व्याख्यातः प्रधानाद्यभिनिवेशस्य निपियत्वसाधनात् । aat कांनासतः प्रतिषेध इति सत एव परिणामस्य कथंचित्प्रतिषेधोपपत्तेः सर्वथा नाभावः ।
इस उक्त कथन करके सत्त्व गुण, रजोगुण, तमोगुण, स्वरूप प्रधान या नित्य. एक, परमब्रह्म. जगत् कर्त्ता ईश्वर आदि के प्रतिषेधों का भी व्याख्यान कर दिया समझलेना चाहिये । सांख्य या अद्वैतवादी अथवा नैयायिक पण्डितों को प्रधान आदि अपने इष्ट तत्वों का अभिनिवेश होरहा है उस अभिनिवेश को निर्विषय सिद्ध कर देने से ही प्रधान आदिके प्रतिषेघ का तात्पर्य सध जाता है, मंत्र द्वारा सर्प को निर्विष कर देना अथवा उससे कथंचित् बचे रहना ही सर्पका निषेध है, अहिंसक धार्मिक पुरुष सर्प को मारते नहीं हैं । तिस कारण से सिद्ध हुआ कि एकान्त रूप से असत् पदार्थका प्रतिषेध नहीं बनता है इस कारण सद्भूत हो रहे ही परिणाम का कथंचित् क्वचित् प्रतिषेध होजाना बन पाता है, अतः सभी.. प्रकारों से परिणाम का अभाव नहीं हुआ, प्रत्युत परिणाम की सिद्धि कर दी गयी है।
स्यान्मतं, नास्ति परिणामोन्यानन्यत्वयोर्दोषादिति नोक्तत्वात । उक्तमत्रोत्तरं, न वयं वीजादकुरमन्यमेव मन्यामहे तदपरिणामत्वप्रसंगात् पदार्थान्तरवत् । नाप्यनन्यमेव कुरामा नुषंगात । किं तर्हि ? पर्यायार्थादेशाद्वी जादंकुर मन्यमनुमन्यामहे द्रव्यार्थादेशादनन्यमिति पक्षान्तरानुसरणाद्दोषाभावान्न परिणामाभावः ।
कूटस्थ - वादियों का सम्भवतः यह भी मन्तव्य होवे कि परिणाम ( पक्ष ) नहीं है ( साध्य ) परिणामी से परिणाम को भिन्न मानने पर अथवा अभिन्न मानने पर दोनों पक्षों में दोष प्राप्त होते हैं अर्थात् यदि वीजसे अंकुर को भिन्न माना जायगा तो वीज का परिणाम अंकुर नहीं होसकता है जैसे स पर्वत का परिणाम विन्ध्य नहीं है तथा यदि वीजसे अंकुर को अभिन्न माना जायगा तो भी वीज की परिणतिर नहीं होसकती है, जैसे घट की परिणति घट ही नहीं है, ऐसी दशामें वीजसे प्रकुर कोई न्यारा पदार्थ नहीं ठहरता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि इसका समाधान हम कह चुके हैं । इस विषय में यों उत्तर कहा जा चुका है कि हम जैन वीजसे अंकुर को सर्वथा भिन्न नहीं मान रहे हैं क्योंकि वीजसे अंकुर को भिन्न मानने पर अंकुर को उस वीज का परिणाम नहीं