Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक योगमात्रनिमित्त तु पुंस्यास्वदपि स्थितिं ।
न प्रयात्यनुभागं वा कषायाऽसत्त्वतःसदा ॥७॥ ईर्यापथ शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है कि ईरण ईर्या "ईर गतौ कम्पने च" धातु से ण्य प्रत्यय कर ईर्या शब्द बना लिया जाय । ईर्या का अर्थ योगों अनुसार गति होना है। इस प्रकार जिस कर्म का वह ईर्या ही पन्था यानी द्वार है वह ईर्यापथ कर्म कहा जाता है । इस अकषाय जीव के जिस कर्म का आस्रव होता है वह ईर्यापथ कर्म समझा जाओ । सूखी भीत के पसवाड़े पर पत्थर का जैसे सम्बन्ध नहीं होसकता है उसी प्रकार अकषाय आत्मा में केवल योग को निमित्त पाकर आस्रव कर रहा भी कम चिरकाल तक तो स्थितिको प्राप्त नहीं होता है और अनुभाग को भी प्राप्त नहीं होता है क्योंकि सर्वदा कषायों के उदय का सद्भाव नहीं है। “ठिदिअनुभागा कसाअदो होति” कषायों से कर्मों के स्थितिबंध और अनुभागबन्ध होते हैं । ग्यारहमे, गुणस्थानों में योग को निमित्त पाकर सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है किन्तु उसमें स्थिति और अनुभाग नहीं पड़ते हैं हाँ योग द्वारा स्थूल शरीर, वचन और मन के उपयोगी आये हुये आहार वर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणाओं के स्कंधों में तो स्थिति पड़ जाती है नोकर्मों की स्थिति पड़ने में कषाय भाव कारण नहीं है । "णवरि हु दुसरीणाणं गलिदवसेसा हु मेत्त ठिदिबंधो गुणहाणीणदिवड्थ संचयमुदयं च चरिमझि” नोकर्मों की स्थिति के कारण तो वहाँ अकषाय जीवों के विद्यमान हैं। खाई हुई रोटी, दाल, या पिये गये दूध, पानी, आदि में प्रविष्ट हो रही आहार वर्गणाओं के अनुभाग या स्थिति बंध के कारण कुछ आत्मीय पुरुषार्थ और शारीरिक रचना विशेष हैं उसी प्रकार अन्य बर्गणाओं के स्थिति, अनुभागों में भी अन्तरंग वहिरंग, कारण जोड़ लेने चाहिये । श्रुतज्ञान का परिशीलन कीजिये, मन्थन करने से अमृत की प्राप्ति होगी।
कपायपरतंत्रस्यात्मनः सांपरायिकास्रवस्तदपरतंत्रस्येर्यापथास्रव इति सूक्तं । कथं पुनरात्मनः कस्यचित्पारतंत्र्यमपरस्यापारतंत्र्यं वात्मत्वाविशेषेऽप्युपपद्यत इत्याह ।
कषायों से पराधीन हो रहे आत्मा के साम्परायिक कर्म का आस्रव होता है और उन कषायों के परतंत्र नहीं हो रहे आत्मा के ईर्यापथ नाम का आस्रव होता है। इस प्रकार उक्त सूत्र में श्री उमास्वामी महराज ने बहुत अच्छा कह दिया है। यदि यहाँ कोई यो प्रश्न करे कि जब जीवपना सम्पूर्ण सकषाय, अकषाय, आत्माओं में विशेषता रहित होकर एकसा है तो भी फिर किसी एक आत्मा का परतंत्र होना और दूसरी आत्मा का परतंत्र नहीं होना भला कैसे युक्त बन सकता है ? बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिक द्वारा समाधान कहते हैं।
कषायहेतुकं पुंसः पारतंत्र्यं समंततः। सत्त्वांतरानपेक्षीह पद्ममध्यगभृगवत् ॥८॥ कषाविनिवृत्तौ तु पारतंत्र्यं निवर्त्यते ।
यथेह कस्यचिच्छांतकषायावस्थितिक्षणे ॥९॥ इस प्रकरण में जीव का सब ओर से परतंत्रपना ( पक्ष ) कषायों को हेतु मान कर उपजा है (साध्य ) अन्य प्राणियों की अपेक्षा नहीं रखता हुआ परतंत्रपना होने से ( हेतु ) जैसे कि यहाँ लोक में