Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक वार्तिक क्रोधावेशात्प्रदोषो यः सांतः प्रादोषिकी क्रिया।
तत्कार्यत्वात्सहेतुत्वात् क्रोधादन्या ह्यनीदृशात् ॥८॥ प्रादोषिकी क्रिया, कायिकी क्रिया, आधिकरिणिकी क्रिया, पारितापिकी क्रिया, प्राणातिपातिकी क्रिया, यह दूसरा क्रिया पंचक है तिनमें क्रोध का आवेश आजाने से जो हृदय में दुष्टता रूप प्रदोष उपजता है वह अन्तरंग की प्रादोषिकी क्रिया है । यदि यहाँ कोई यों कटाक्ष करे कि कषायों में क्रोध गिना ही दिया गया है फिर क्रियाओं में क्रोध स्वभाव प्रादोषिकी क्रिया का ग्रहण करना तो पुनरुक्त हुआ, आचार्य समझाते हैं कि यह आक्षेप ठीक नहीं है क्योंकि प्रादोषिकी क्रिया में क्रोध कारण पड़ता है उस क्रोध का कार्य प्रादोषिकी क्रिया है । एक बात यह भी है कि क्रोध तो कदाचित् सर्प, भेड़िया, आदि के बिना कारण ही उपज जाता है किन्तु प्रदोष यानी दुष्टता या पिशनता तो कुछ न कुछ निमित्त पाकर उपजती हैं अतः हेतुसहित हो रही होने के कारण इस प्रादोषिकी क्रिया सारिखे नहीं होरहे क्रोध कषाय से यह प्रदोष क्रिया भिन्न है।
प्रदुष्टस्योद्यमो हंतुं गदिता कायिकी क्रिया । हिंसोपकरणादानं तथाधिकरणक्रिया ॥९॥ दुःखोत्पादनतंत्रत्वं स्याक्रिया पारितापिकी। क्रियासा तावता भिन्ना प्रथमा तत्फलत्वतः ॥१०॥ प्राणातिपातिकी प्राणवियोगकरणं क्रिया।
कषायाच्चेति पंचताः प्रपत्तव्याः क्रियाः पराः ॥११ प्रदोष करके युक्त होरहे सन्ते बढ़िया दुष्ट पुरुष का दूसरों को मारने के लिये जो उद्यम करना है वह कायिकी क्रिया कही गयी है। तथा हिंसा के उपकरण होरहे शस्त्र, विष, आदि का ग्रहण करना अधिकरण क्रिया मानी गयी है । दूसरे प्राणियों को दुःख उपजाने पर उसके अधीन जो परिताप होत है वह पारितापिकी क्रिया है तितने से ही वह पहिली क्रिया भिन्न हो जाती है क्यों कि वह उसका फल है । अर्थात् क्रोध के आवेश से दूसरे को मारने का उद्यम किया गया उससे हिंसा के उपकरणों को पकड़ा पुनः उससे जीवों को दुःख उपजाया यों उक्त क्रियायें परस्पर में एक दूसरे से भिन्न हैं। पांचमी आयुः प्राण, इन्द्रिय प्राण, बल प्राण, और श्वासोच्छ्वास प्राण इनका वियोग कर देना प्राणातिपातिकी क्रिया है। ये पाँचों ही क्रियायें कषायों से भिन्न समझ लेनी चाहिये । कषायें कारण हैं और उक्त पाँचों क्रियायें कार्य हैं अन्य अव्रत आदि से भी ये क्रियायें भिन्न हैं।
रागाईस्य प्रमत्तस्य सुरूपालोकनाशयः। स्याद्दर्शनकियास्पर्शे स्पृष्टधीः स्पर्श नकिया ॥१२॥ एते चेंद्रियतो भिन्ने परिस्पंदात्मिके मते। ज्ञानात्मनः कषायाच्च तत्फलत्वात्तथाऽवतात् ॥१३॥