Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
छठा अध्याय
४६९
कषायविशेषकारणाद्विशिष्टो जातः । स च कर्मबंधानुसारतोऽनेकप्रकारो युक्तः सूत्रितः। कर्म पुनर्नृणामनेकप्रकारं कषायविशेषाद्भावकर्मण इति हेतुफलव्यवस्था । परस्पराश्रयान्न तद्व्यवस्थेति चेन्न, बीजांकुरवदनादित्वात्कार्यकारणभावस्य तत्र सर्वेषां सप्रतिपत्तेश्च ।
जीव के इन्द्रिय, कषाय, आदि स्वरूप हो रहा भावास्रव तो उस जीव का निज परिणाम ही है जो कि तीव्रत्व, मन्दत्व, आदि विशेषों से विशेषताओं को लिये हुये है । विस्तार से विचार करने पर तो यह जान लिया जाता है कि वह भाषास्रव विशेष कषाय स्वरूप कारणों से विशिष्ट हो चुका है अतः कर्मबंध के अनुसार से वह भावास्रव अनेक प्रकार है जो कि सूत्र द्वारा श्री उमास्वामीमहाराज समुचित कह दिया है। हाँ जीवों के फिर कर्म तो अनेक प्रकार के हैं जो कि भावकर्म होरहे कषाय विशेषों से उपज जाते हैं । अर्थात् कषाय विशेषों से द्रव्य कर्म बंधते हैं और फल काल में द्रव्य कर्मों का उदय आने पर आत्मा में क्रोध आदि भावकर्म उपज जाते हैं इस प्रकार कषाय और कर्मों में कार्य कारण व्यवस्था होरही है। यदि कोई बालक यहाँ यों आक्षेप करे कि यहां तो अन्योन्याश्रय दोष हुआ द्रव्यकर्म से भावकर्म हुये और भावकर्मों से द्रव्यकर्म हुये यही तो इतरेतराश्रय है जैसे कि दीपक कब जले जब दियासलाई मिले और दियासलाई की डिब्बी अंधेरे में कब मिले जब दीपक जल चुके इसकारण वह तुफलव्यवस्था नहीं हुई । ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि बीज और अंकुर के समान यह द्रव्यकर्म और भावकर्म का कार्यकारणभाव अनादि काल से चला आरहा है। उस कार्य - कारणभाव में सभी वादी प्रतिवादी पण्डितों की समीचीन प्रतिपत्ति हो रही है किसी को विप्रतिपत्ति नहीं है । अर्थात् सूक्ष्मदृष्टि से विचारने पर जैसे बीज अंकुर में कोई अन्योन्याश्रय नहीं है जिस बीज से जो अंकुर हुआ है अंकुर से वही बीज नहीं उपजता है किन्तु न्यारा ही बीज उपजता है सादृश्य से भले ही उसको बीज कह दिया जाय न्यारे न्यारे अंकुरों से भिन्न भिन्न बीज और भिन्न भिन्न बीजों से पृथक पृथक अंकुर उपज रहे हैं। कार्य के प्रतिबन्धक अन्योन्याश्रय को हम भी दोष मानते हैं किन्तु यहां वह दोष अणुमात्र भी नहीं है जिस भाव कर्म से द्रव्यकर्म बंधा है वह फल काल में दूसरे ही भाव कर्म को उपजावेगा और उस भाव कर्म से अन्य ही पौद्गलिक कर्मों का बंध होगा यों कोरे शब्दसादृश्य से अन्योन्याश्रय नहीं होजाता है । यहां वस्तु व्यवस्था न्यारी न्यारी है अतः तीव्र, मन्द, आदि सूत्र द्वारा अनन्त प्रमेय को सूचित करा देना श्री सूत्रकार महाराज का अतीव प्रशस्त कार्य है ।
किं पुनरत्राधिकरणमित्याह ।
उक्त सूत्र में कहे गये तीव्र मंद आदि को हमने समझ लिया है किन्तु फिर अधिकरण को नहीं समझा है अतः बताओ कि यहां प्रकरण अनुसार अधिकरण भला क्या पदार्थ है ? ऐसी विनीत शिष्य की जिज्ञासा प्रवर्तने पर श्री उमास्वामी महाराज इस अगले सूत्र को कहते हैं ।
अधिकरणं जीवाजीवाः ॥७॥
यहाँ आस्रव के प्रकरण में अधिकरण हो रहे तो जीव और अजीव पदार्थ हैं अर्थात् - जिस द्रव्य का अवलम्ब लेकर आस्रव उपजता है वह द्रव्य यहाँ अधिकरण कहा जाता है यद्यपि जीव द्रव्य के ही सर्व आस्रव होते हैं फिर भी जीव द्रव्य का आश्रय लेकर जो आस्रव उपजता है उसका अधिकरण जीक