Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक और अजीव द्रव्य को आश्रय मान कर जो कर्मों का आस्रव होता है उसका अधिकरण अजीव द्रव्य माना जाता है जीवों और हिंसा, देवपूजा, आदि के उपकरण हो रहे अजीवों का अवलम्ब पाकर आस्रव विशेष हुआ करते हैं।
द्विवचनप्रसंग इति चेन्न, पर्यायापेक्षया बहुत्वनिर्देशात् । नहि जीवद्रव्यसामान्यमजीव. द्रव्यसामान्यं वा हिंसाधुपकरणभावेन सांपरायिकास्रवहेतुत्वेनाधिकरणत्वं प्रतिपद्यते केनचित्पर्यायेण विशिष्टेनैव तस्य तथाभावप्रतीतेः । - यहाँ कोई पूछता है कि जब मूल पदार्थ जीव अजीव दो हैं तो फिर 'जीवाजीवौ' इस प्रकार द्विवचनान्त पद के ही कहने का प्रसंग प्राप्त हुआ गौरवाधायक “जीवाजीवाः" ऐसा बहुवचनान्तपद सूत्रकार ने क्यों कहा ? ग्रन्थकार कहते हैं कि यह प्रसंग तो नहीं देना क्यों कि पर्यायों की अपेक्षा से यहाँ बहुवचन का निर्देश किया गया है। जीव अजीवों की पर्यायें ही तो अधिकरण हैं सामान्य जीवद्रव्य अथवा सामान्य अजीव द्रव्य तो हिंसा आदि के उपकरण भाव करके साम्परायिक आस्रव के हेतपनेसे अधिकरणता को प्राप्त नहीं करते हैं किन्तु किसी न किसी पर्याय से विशिष्ट हो रहे पने करके ही उन जीव अजीवों की तथा भाव यानी आस्रवहेतुद्रव्यत्वेन प्रतीति हो रही है अतः पर्यायों की विवक्षा अनुसार बहुवचन कहा गया है । पर्याय अनेक हैं ।
सामानाधिकरण्यं तदभेदार्पणया जीवाजीवास्तदधिकरणमिति । सर्वथा तभेदेऽभेदे च सामानाधिकरण्यानुपपत्तिः ।
उन जीव, अजीवों का अधिकरण के साथ अभेद बने रहने की विवक्षा से समान अधिकरणपना बन जाता है । जीव अजीव ही तो उस आस्रव के अधिकरण हैं उन उद्देश्य और विधेयदलों का सर्वथा भेद होने पर सामानाधिकरण्य नहीं बन पाता है जैसे कि भरतक्षेत्र और सिद्धशिला अथवा आकाश और ज्ञान का समानाधिकरणपना नहीं है तथा सर्वथा अभेद होने पर भी समान विभक्ति या समान वाच्यार्थ अनुसार समानाधिकरणपना नहीं बनता है जैसे कि बुद्धि के साथ ज्ञान का, घट के साथ कलश का सामानाधिकरण्य नहीं है तभी तो वैयाकरणों के यहाँ उद्देश्य विधेय पदों के अर्थ में कथंचित् व्यभिचार प्रवर्तने पर सामानाधिकरण्य लक्षणा कर्मधारय वृत्ति उपजती है नीलाम्बरं यहाँ नीलपन को छोड़ कर वस्त्रपना धौले वस्त्रों में है और वस्त्रों को छोड़ कर नीलपना कम्बल, स्याही, आदि अन्य पदार्थों में भी ठहर जाता है अथवा नील रंग के नष्ट हो जाने पर भी वस्त्र ठहरा रहता है। ज्ञानों का परिवर्तन होते हुये भी आत्मा वह का वही बना रहता है अतः कथंचित् भेदाभेद होने से जीवों और अजीवों के साथ अधिकरण का सामानाधिकरण्य है।
तत्त्वेभिर्निर्धारणार्थः सूत्रे सामर्थ्यानिर्देशः । तेषु तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेषु यदधिकरणं तस्य जीवाजीवात्मकत्वेन निर्धारणात् । तदेव दर्शयति ।
__वह अधिकरण तो इन जीव अजीवों, करके निर्धारण करने के लिये सूत्र में कहा गया है निर्धारण जिससे होता है उस के वाचक पद से षष्ठी या सप्तमी विभक्तियाँ होती हैं यहाँ भी विना कह ही सामर्थ्य से तीव्र, मंद आदि पंचम्यन्त पद को सप्तम्यन्त या षष्ठयन्त बना लिया जाय और प्रथमान्त