Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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छठा-अध्याय
४७१ आस्रवः के स्थान में आस्रवस्य यों षष्ठी विभक्ति का विपरिणाम कर लिया जाय तदनुसार यह अर्थ हो जाता है कि उन तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण विशेष और वीर्यविशेष इन में जो अधिकरण हैं उसका जीव, अजीव, स्वरूपने करके निर्धारण किया गया है । जाति, गुण, क्रिया, और संज्ञाओं करके समुदाय से एक देश अवयव का जो पृथक् करना है वह निर्धारण है। तथा उस आस्रव के अधिकरण जीव अजीव हैं । उसी सिद्धान्त को स्वयं ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा दिखलाते हैं।
तत्राधिकरणं जीवाजीवा यस्य विशेषतः ।
साम्परायिकभेदानां विशेषः प्रतिसूत्रितः ॥१॥ उन तीव्र आदि विशेषकों में जिस आस्रव के विशेष रूप से जीव और अजीव अधिकरण हो रहे हैं उस साम्परायिक आस्रव के भेदों की विशेषता को करने वाला एक प्रतिविशेष इस सूत्र द्वारा कहा जा चुका है।
तदधिकरणं जीवजीवा इति प्रतिपत्तव्यं ।
आस्रव का वह अधिकरण तो जीव और अजीव पदार्थ हैं इस प्रकार जिज्ञासुओं को इस सूत्र द्वारा समझ लेना चाहिये।
तत्राद्यं कुतो भिद्यते इत्याह ।
उन जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण आस्रवों के मध्य में आद्य हो रहे जीवाधिकरण का किन-किन हेतुओं से भेद प्राप्त हो जाता है ? इस प्रकार श्रद्धालु शिष्य की जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को यों स्पष्ट कह रहे हैं।
आद्यं संरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥८॥
___ आदि में होने वाला जीवाधिरण आस्रव तो संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ और योग तथा कृत, कारित, अनुमोदना एवं कषायें इनके विशेषों करके एक एक के प्रति तीन वार पुनः तीन बार पुनः अपि तीन बार अनन्तर चार बार गिनती करते हुये एक सौ आठ भेद वाला हो जाता है । अर्थात्-प्रमाद वाले जीव का हिंसा, असत्य आदि में प्रयत्न का आवेश करना संरम्भ है। हिंसा आदि के साधनों का अभ्यास करना समारम्भ है। हिंसा आदि का प्रथम प्रारम्भ कर देना आरम्भ है । काय परिस्पन्द, वाक् परिस्पन्द, और मनोवलम्ब परिस्पन्द करके योग तीन प्रकार का कहा जा चुका है। अपनी स्वतंत्रता से किये गये कार्य को कृत कहते हैं, दूसरे के प्रयोग की अपेक्षा कर बनाया गया कारित है, अन्य करके किये जा रहे हिंसा आदि का प्रतिषेध नहीं कर अभ्यन्तर में उसकी अनुमोदना करने में लगरहा मानस परिणाम अनुमत समझा जाता है । क्रोधादि कषायों को समझाया जा चुका है विशेष का सर्वत्र अन्वय हो रहा है तीन बार संरम्भ, समारम्भ, आरम्भों करके, तीन बार योग विशेषों के साथ, यथाक्रम से तीन बार कृत, कारित अनुमोदना विशेषों के अनुसार, चार बार कषाय विशेषों करके गणना की अभ्यावृत्ति करते हुये एकसौ