Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक इन्द्रियलोलुपता आदि की अल्पप्रवृत्ति मन्दभाव है; जान-बूझ कर राग, द्वेष, पूजा, दान आदि परिणतियों का होना ज्ञातभाव है; नहीं जान कर हिंसा, असत्यभाषण, कषाय, आदि विकारों का होजाना अज्ञातभाव है; जिसका अवलम्ब या आश्रय पाकर आत्मा प्रयोजनों को साधता है वह द्रव्य अधिकरण है; जीव, पुद्गल, धर्म , अधर्म, आकाश, काल, इन द्रव्यों की शक्तियों को वीर्य कहते हैं। यहां प्रकरण अनुसार जीव और पुद्गल द्रव्यों की शक्ति का ग्रहण करना चाहिये । हाँ “यावन्ति पररूपाणि तावन्त्येव प्रत्यात्म स्वभावान्तराणि तथा परिणामात्” इस न्याय सिद्धान्त अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्यों में भी जीव और पुदगल परिणतियों के अनुकूल अनेक वस्तुभूत शक्तिशाली स्वभावों के मानने पर तो सभी अजीवों की नियत शक्तियाँ साम्परायिक आस्रव में विशेषताओं को उपजा देती हैं इनके तारतम्य अनुसार आस्रवों में अन्तर पड़ जाता है। राग, द्वष की परिणति, शिष्ट अशिष्ट प्राणियों का संसर्ग, देश, काल, आदि बहिरंग कारणों की पराधीनता, आत्मीय पुरुषार्थ आदि कारणों के वश से किन्हीं किन्हीं आत्माओं में इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियाओं के तीवभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण विशेषता और वीर्य विशेषता हो जाती है । तदनुसार कर्मों के आस्रवों में विशुद्धि संक्लेशांगों से अन्तर पड़ता हुआ असंख्यात प्रकार के सुख दुःख आदि फलों की विशेषताओं को उपजा देती हैं। लोक में भी एक ही विद्यालय में पढ़ने वाले और एक ही भोजनालय में भोजन करने वाले छात्रों की ज्ञान सम्पत्ति और शारीरिक सम्पत्ति तथा सदाचार प्राप्ति में अनेक प्रकार के अन्तर देखने में आते हैं । इन सब के कारण तीव्रता, मन्दता आदि को लिये हुये अन्तरंग, बहिरंग कारणों की संयोजना है अतः सूत्रकार महाराज ने तीव्रभाव आदि करके आस्रवों की विशेषता सूत्र द्वारा अच्छा सूचन किया है अन्यथा अनेक शंकाओं का निराकरण दुःसाध्य ही हो जाता।
अतिप्रवृद्धक्रोधादिवशात्तीवः स्थूलत्वादुद्रिक्तः परिणामः, तद्विपरीतो मन्दः, ज्ञानमात्रं ज्ञात्वा वा प्रवृत्तिर्जातं, मदात्प्रमादाद्वा अनववुद्धय प्रवृत्तिरजातं, अधिक्रियतेऽस्मिन्नर्था इत्यधिकरणं प्रयोजनाश्रयं; द्रव्यं,द्रव्यस्यात्मसामर्थ्य वीयं । भावशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, भुजिवत्, तीव्रभावो मन्दभावो ज्ञातभावो अज्ञातभाव इति ।
कर्मों की उदीरणा वश अत्यधिक बढ़े हुये क्रोध अभिमान आदि के वश से तीव्र होरहा यानी स्थूल होने के कारण उद्रेक (जोश) को प्राप्त हो चुका परिणाम तीव्र कहा जाता है । बहिरंग और अन्तरंग कारणों की उदीरणा के वश से जीवों के उत्कट यानी तीव्र परिणाम होजाते हैं तथा उससे विपरीत हो रहा यानी उदीरणा के कारण नहीं मिलने पर अनुद्र क परिणति है वह मन्दभाव है। केवल जान लेना मात्र अथवा यह प्राणी मारने योग्य है यों जान कर प्रवृत्ति करना ज्ञात भाव है। इन्द्रियों का व्यामोह करने वाले
भांग. सलफा. अफीम आदि का उपयोग करने से उत्पन्न हये मद करके अथवा प्रमाद से नहीं जानकर हिंसा आदि में प्रवृत्ति का होना अज्ञात भाव है। आत्माओं के प्रयोजन जिस प्रस्तुतद्रव्य में अधिकार को प्राप्त हो रहे हैं वह प्रयोजन का आश्रय होरहा द्रव्य अधिकरण है । आत्मा आदि द्रव्य की निज सामर्थ्य को वीर्य माना गया है। यहाँ सूत्रमें “तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभावादि" इस द्वन्द्वघटित पद के अन्त में पड़े हुये भाव शब्द का प्रत्येक के साथ पीछे सम्बन्ध कर लेना चाहिये जैसे कि देवदत्त, जिनदत्त, रामदत्त दनको भोजन करा दो यहाँ भोजन क्रिया का प्रत्येक तीनों व्यक्तियों में सम्बन्ध कर दिया जाता है इसी प्रकार तीव्रभाव, मन्दमाव, ज्ञातभाव, और अज्ञातभाव यों पदों का विन्यास कर लिया जाय ।