Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
छठा अध्याय
४६१
द्वारा कथन करने पर ये क्रिया स्वभाव नहीं हैं हां भाव स्वरूप इन्द्रिय, कषाय, अत्रतों को कर रही पर्यायार्थिकनय की विवक्षा से उन इन्द्रिय, कषाय, अव्रतों को किया स्वरूपपना है अतः इनके क्रिया स्वरूप होने का ही एकान्त नहीं है, नयों की विवक्षा अनुसार अनेकान्त है । अतः सूत्रकार के ऊपर प्रपंच मात्र कहने का दोष प्राप्त नहीं होता है । क्रिया है स्वभाव जिनका वे क्रिया स्वभाव हुये, यों बहुव्रीहि समास करते हुये पुनः भाव में त्व प्रत्यय कर उनका जो भाव है वह "क्रियास्वभावत्व" है यह वृत्ति की जाय ।
किं च, द्रव्यभावास्रवत्वभेदाच्चेंद्रियादीनां क्रियाणां च न क्रियाः तत्प्रपंचमात्रं इंद्रियादयो हि शुभेतरास्रवपरिणामाभिमुखत्वाद्द्रव्यास्रवाः क्रियास्तु कर्मादानरूपाः पुंसो भावास्त्र वा इति सिद्धांतः । कायवाङ्मनःकर्म योगः स आस्रव इत्यनेन भावास्त्रवस्य कथनात् ।
. दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय, कषाय, आदिकों को द्रव्यास्रवपना है और क्रियाओं को भावास्रवपना है । इस कारण इन्द्रिय आदिक और पच्चीस कषायों का भेद हो जाने से क्रियायें उन इन्द्रिय आदिकों का या क्रियाओं का इन्द्रिय आदिक विस्तार मात्र नहीं है जब कि इन्द्रिय आदिक नियम से शुभ आस्रव और उससे इतर अशुभ आस्रव के परिणामों की ओर अभिमुख होने के कारण द्रव्यास्रव हैं और क्रियायें तो आत्मा के निकट कर्मों का ग्रहण करा देना स्वरूप होती हुई भावास्रव हैं यह जैन सिद्धान्त प्रस्फुट है । काय, वचन, और मन की कम्पस्वरूप किया योग है तथा वही आस्रव है यों छठे अध्याय के पहिले दो सूत्रों करके भावास्रव का कथन किया गया है। ऐसी दशा में इन्द्रिय आदिकों का प्रपंच कियायें या कियाओं का प्रपंच इन्द्रिय आदि नहीं हैं प्रत्युत वे क्रियायें भावास्रव होती हुई द्रव्यास्रव हो रहे इन्द्रिय, कषाय, अत्रतों से विभिन्न हैं ।
द्रव्याव एव योगः कर्मागमनभावास्रवस्य हेतुत्वादिति चेन्न, आस्रवत्यनेनेत्यास्रव इति करणसाधनतायां योगस्य भावास्रवत्वोपपत्तेः । एवमिंद्रियादीनामपि भावास्रवत्वप्रसंग इति चेन्न, तेषां क्रियाकारणत्वेन द्रव्यास्त्रवत्वेन विवक्षितत्वात् । आस्रवणमात्रव इति भावसाधनतायां क्रियाणां भावास्रवत्वघटनात् ।
यहाँ कोई विद्वान् आक्षेप करता है कि योग तो द्रव्यास्रव ही है क्योंकि कर्मों के आगमन स्वरूप भावास्रव का वह हेतु है । भावास्रव का हेतु द्रव्यास्रव माना गया है अतः परिस्पन्द किया स्वरूप योग द्रव्यास्रव ही होगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि आङ् उपसर्ग पूर्वक "स्रुगतौ” धातु से करण में अप् प्रत्यय कर आस्रव शब्द बनाया गया है जिस करके कर्मों का आगमन होता है वह आस्रव है इस प्रकार करण में आस्रव शब्द का साधन करते सन्ते योग को भाषास्रवपना बनता है । पुनः कोई विद्वान् यदि आक्षेप करे कि यों तो इन्द्रिय आदिकों को भी भावास्रवपने का प्रसंग आजावेगा इन्द्रिय आदि करके भी कर्मों का आगमन होता है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वे इन्द्रिय आदिक तो कम्पस्वरूप योग क्रिया के कारण हैं इस कारण इन्द्रिय आदि की द्रव्यास्त्रवपने करके विवक्षा की जा चुकी है। हाँ आस्रव होना यानी आगमन होना मात्र आस्रव है यों भाव में अप्प्रत्यय कर आस्रव शब्द की सिद्धि करने पर तो क्रियाओं को भावास्रवपना घटित होजाता है ।
कार्यकारणभावाच्चेंद्रियादिभ्यः क्रियाणां पृथग्वचनं युक्तं इन्द्रियादिपरिणामा हेतवः क्रियाणां तेषु सत्सु भावादसत्यभावादिति निगदितमन्यत्र ।