Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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छठा अध्याय
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क्रियाओं का तीसरा पंचक दर्शन क्रिया, स्पर्शनक्रिया, प्रात्ययिकी क्रिया, समन्तानुपातन क्रिया और अनाभोग क्रिया इस प्रकार है । राग से द्रवीभूत हो गये प्रमादी जीव का रमणीय पदार्थ के सुन्दर रूपों के आलोकन करने में अभिप्राय होना दर्शन क्रिया है । छूने योग्य पदार्थ के स्पर्श करने में रागी जीव की जो छूते रहने के लिये बुद्धि होना ( टकटकी लगे रहना ) है वह स्पर्शन क्रिया है । यदि यहाँ कोई यों प्रश्न करे कि पाँच इन्द्रियों में चक्षुः इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रिय को गिन लिया गया है उन्हीं में ये दर्शन, स्पर्शन, क्रियायें गतार्थ होजावेंगी यों उनका पृथक निरूपण करना व्यर्थ है अथवा कषायों या अत्रतों में भी इन क्रियाओं का अन्तर्भाव हो सकता है । इसका समाधान करते हुये आचार्य कहते हैं कि अपरिस्पन्द आत्मक इन्द्रियों से ये परिस्पन्द आत्मक दोनों क्रियायें भिन्न मानी गयी हैं पहिले पाँच इन्द्रियों में ज्ञान आत्मक इन्द्रियों का ग्रहण है किन्तु यहाँ इन्द्रियविज्ञान पूर्वक हुये दर्शन, स्पर्शन आत्मक परिस्पन्द को क्रियाओं में लिया गया है अतः ज्ञान आत्मक इन्द्रियों से ये क्रियायें भिन्न हैं । यह भी एक तर्क है। तथा कषाय या अत्रतों से भी उक्त क्रियायें भिन्न हैं क्योंकि ये क्रियायें उन अव्रत और कषायों के फल
"तेषां फलानि तत्फलानि तेषां भावस्तत्फलत्वं" कभी कभी क्रियाओं से भी कषायें और अव्रत उपज जाते हैं अतः ये क्रियायें उनकी कारण भी हैं “तानि फलानि यासां ताः तत्फलाः तासां भावस्तत्फलत्वं तस्मात्तत्फलत्वात्” यों " तत्फलत्व" पद का विग्रह किया जा सकता है ।
अपूर्वप्राणिघातार्थोपकरणप्रवर्तनं ।
किया प्रात्ययिकी ज्ञेया हिंसाहेतुस्तथा परा ॥१४ स्त्र्यादिसंपातिदेशेंत र्मलोत्सर्गः प्रमादिनः । शक्तस्य यः कियेष्टेह सा समंतानुपातिकी ॥१५॥ अदृष्टे यो प्रमृष्टे च स्थाने न्यासो यतेरपि । कायादेः सा वनाभोग किया सैताश्च पंच ताः ॥१६॥
प्राणियों का घात करने के लिये तलवार, तोप, बन्दूक, पिस्तौल, मशीनगन, बम, टारपीडो, सुरंग, विषाक्त गैस, आदि अपूर्व उपकरणों की प्रवृत्ति करना तो प्रात्ययिकी क्रिया समझनी चाहिये, तिसी प्रकार हिंसा का हेतु होरही यह किया भी उन कषाय और अतों से भिन्न है । समर्थ होरहे भी प्रमादी पुरुष का स्त्री, पुरुष, पशु आदि का सम्पात ( गमनागमन) हो रहे प्रदेशों में जो अन्तरंग मल, मूत्र, सिंघाणक आदि मलों का त्याग करना है वह यहाँ समन्तानुपातिकी क्रिया इष्ट की गई है। असंयमी पुरुष हो चाहे संयमी भी साधु क्यों न हो उस यति का भी बिना देखे हुये और बिना शुद्ध किये हुये स्थान में शरीर, पुस्तक, आदि का जो स्थापन कर देना है वह तो पाँचवीं या पन्द्रहवीं प्रसिद्ध अनाभोग क्रिया है । ये भी प्रसिद्ध होरहीं पांच क्रियायें हैं जो कि वे अन्य क्रियाओं और इन्द्रिय, कषाय, अव्रतों, से भिन्न होरहीं मानी गयी हैं ।
परनिर्वर्त्यकार्यस्य स्वयं करणमत्र यत् । सा स्वहस्तक्रियावद्यप्रधाना धीमतां मता ॥१७॥