Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
छठा अध्याय
४५१
स्य स्वरूपं, तदा द्रष्टः स्वरूपेऽवस्थानं" ऐसे हमारे यहाँ आगम वचन हैं। आचार्य कहते हैं कि यह
नहीं समझ बैठना कारण कि प्रकृति ही ( पक्ष ) संसार और मोक्ष को धारने वाली कथमपि नहीं है। ( साध्य ) अचेतन होने से ( हेतु ) घट के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । इस अनुमान द्वारा अचेतन प्रकृति के ही संसार या मोक्ष हो जाने का अभाव साध दिया गया है । यदि कापिल यों कहे कि चेतन पुरुष का संसर्ग हो जाने से वह प्रकृति ही उस संसार अवस्था को धार लेती ही है "तस्मात्तत्संसर्गादचेतनं चेतनावदिव” । तथा विवेकज्ञान यानी प्रकृति और पुरुष के भेद का परिज्ञान हो जाने से वह प्रकृति ही मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। गाय के गले में रस्सी ही बँध जाती है और रस्सी ही छूट जाती है एतावता गाय का बन्धन या मोचन कह दिया जाता है वस्तुतः गाय अपने स्वरूप में वैसी की वैसी ही है। आचार्य कहते हैं कि यों कहो तब तो जिस प्रकार चेतन का संसर्ग हो जाने से प्रकृति का आत्मा के परतंत्र हो जाना स्वरूप संसार होना माना गया है उसी प्रकार प्रकृति का संसर्ग हो जाने से चेतन आत्मा का भी उस प्रकृति के पराधीन होजाना स्वरूप संसार सिद्ध हुआ जाता है क्योंकि कोई भी संसर्ग होय वह दो में अवश्य ठहरता है दो आदि पदार्थों से न्यून अर्थ में सम्बन्ध नहीं ठहर पाता है यों जैन सिद्धान्त अनुसार आत्मा और कर्म दोनों के ही संसार या मोक्ष होना घटित हो जाता है । मलिन सुवर्ण या वस्त्र से मल जब लग जाता है तब दोनों ही स्वकीय गुणों से च्युत होकर विभावपरिणति को धार लेते हैं और प्रयोगों द्वारा मल को अलग कर देनेपर शुद्ध सुवर्ण या स्वच्छ वस्त्र के समान मल भी अपने स्वरूप में निमग्न हो रहा झगड़े टण्टों से रहित होकर मुक्त होजाता है अतः आत्मा के भी परतंत्रता स्वरूप संसार सिद्ध हुआ इस बात को सांख्य स्वीकार करें हम स्याद्वादी तो प्रथम से ही पुद्गल की मोक्ष स्वीकार करते हैं "जीवाजीवास्रव" आदि सूत्र की सेंतालीसवीं वार्त्तिक को देखो अतः हमारा उक्त हेतु आश्रयासिद्ध नहीं है ।
नन्वेवं प्रकृतिपारतंत्र्येण व्यभिचारस्तस्य कषायहेतुकत्वाभावादिति न मंतव्यं, कापिलानां कषायस्य क्रोधादेः प्रकृतिपरिणामतयेष्टत्वात् तत्पारतंत्र्यस्य कषायहेतुकत्व सिद्धेः । स्याद्वादिनां तु कषायस्य जीवपरिणामत्वेऽपि कर्मलक्षणप्रकृतेः पारतंत्र्यस्य तत्प्रकृतत्वोपपत्तेः कथं तेन व्यभिचारः ? कषायपरिणामो हि जीवस्य कर्मणां बंधमादधानो यथा तत्पारतंत्र्यं कुरुते तथा कर्मणोऽपि जीवपरतंत्रत्वमिति न व्यभिचारिसाधनं कषाय हेतुकत्वनिवृत्तौ निवर्तमानत्वादन्यथा मुक्तात्मनोऽपि पारतंत्र्यप्रसंगात् । जीवन्मुक्तस्यापि हि शांतकषायावस्थाकाले पारतंत्र्य निवृत्तिरुपलभ्यते । "जीवन्नेव हि विद्वान् संहर्षायासाभ्यां विमुच्यते " इति प्रसिद्धेः ।
यहाँ कपिल पुनः उक्त हेतु में व्यभिचार दोष उठाते हैं कि आप जैनों के "सत्त्वान्तरानपेक्षित्वे सति पारतंत्र्यशब्दवाच्यत्वात् " हेतु का प्रकृति की परतंत्रता करके व्यभिचार दोष आता है। देखिये संसार अवस्था में प्रकृति परतंत्र होरही है किन्तु वह परतंत्रता विचारी कषायों को हेतु मान कर उपजी नहीं है कषायें तो जीव के हो सकती हैं जड़ प्रकृति के नहीं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं मान बैठना चाहिये क्योंकि आप कपिल मतानुयायियों के यहाँ क्रोध, राग, द्व ेष, मोह आदि कषायों को प्रकृति का परिणाम होरपन करके इष्ट किया गया है प्रसन्नता, लाघव, राग, द्वेष, मोह, दीनता, शोक, ये सब विकार उस सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणवाली प्रकृति के परिणाम माने गये हैं अतः उस प्रकृति के परतंत्रपन का कषाय नामक हेतुओं से उपजना सिद्ध हो जाता है। हम जैनों के यहाँ तो प्रथम से ही प्रमाण और व्यवहार नय के विषयोंका प्रतिपादन करने वाले तत्त्वार्थसूत्र, राजवार्त्तिक, सर्वार्थसिद्धि, गोमट्टसार, आदि में तो क्रोध आदि को आत्मा का ही विभाव परिणाम कहा है। हाँ निश्चय नय के प्रतिपाद्य विषय का निरूपण करने वाले समय