Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
श्लोक-वार्तिक
न ह्येकांतनो नित्यं मन्नाम तस्य क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रिया विरोधात् । नाप्यनित्यमेव तत एव । न चार्थक्रियारहितं वस्तु सत् खरशृ' गवत, अर्थक्रियाकारिण एव वस्तुनः सत्वोपपत्तेः । ततस्तन्नित्यानित्यं च युक्तं सूचितमावेरुद्धत्वात्
।
३६०
जो सर्वथा एकान्त स्वरूप से नित्य है वह सत् इस नाम को कथमपि नहीं पा सकता है । क्योंकि सर्वथा नित्य एकान्त में क्रम से और युगपत्पन से अर्थक्रिया होजाने का विरोध है । और सभी प्रकारोंसे अनित्य हो सत् कैसे भी नहीं होसकता है, तिस ही कारण से यानी क्रन और युगपत्पन करके सर्वथा अनित्य पदार्थ में अर्थक्रिय होने का विरोध है । नित्य में क्रम नहीं बनता है और अनित्य में युगपत्पना रक्षित नहीं रह पाता है । जा प्रक्रिया से रहित वस्तु है, वह खरविषाण के समान सत् नहीं है। कारण कि अर्थ - क्रिया को करने वाली ही वस्तु का सत्वना युक्तियों से निर्णीत होरहा है । तिस कारण से इस सूत्र द्वारा वह सत् नित्य और प्रनित्य भो सूचित किया जा चुका समुचित है । कोई जैन सिद्धान्त से विरोध नहीं आता है। पूर्व सूत्र करके सत् के उत्पाद व्यय से युक्त कह देने पर अनित्यता और धौव्य से युक्त कह देने पर नित्यपना ध्वनित कर दिया है, इस सूत्र द्वारा नित्यपन अनित्यपन दोनों की सूचना कर दी गई है ।
कुतस्तदविरुद्धमित्याह ।
किसी जिज्ञासु शिष्य की आकांक्षा है कि स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार वह नित्यपन और श्रनित्यपन एक वस्तु में भला किस कारण से विरुद्ध नहीं हैं ? बताओ ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।
अर्पितानर्पितसिद्ध ेः ॥ ३२ ॥
प्रयोजन के वश से अनेकान्तात्मक वस्तु के जिस किसी भी एक धर्म की विवक्षा होने पर प्रधानता को धार रहा स्वरूप अर्पित है और प्रयोजन नहीं होने से विद्यमान भी धर्म को अविवक्षा होजाने से वस्तुका गौरणभूत स्वरूप तो अनर्पित है, अर्पित और अनर्पित स्वरूपों करके वस्तु के नित्यत्व अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, अपेक्षितत्व, अनपेक्षित्व, देवकृतत्व, पुरुषार्थकृतत्व, आदि धर्मों को सिद्धि होजाती है, अतः वस्तु में नित्यपन और अनित्यपन विरोधरहित होकर सकुशल ठहर रहे हैं ।
तद्भावेनाव्ययं नित्यमतद्भावेन सव्ययमनित्यमिति साध्यं । ततः
"अपितानपितसिद्ध।” इस सूत्र को तो हेतुवाक्य बना लो तथा तदुभाव करके प्रध्यय होना नित्य है, और तादृश, विसदृश, अतद्भाव करके व्ययसहित होना अनित्य है, इसको यहां साध्य बना लिया जाय वस्तुको पक्ष कोटि में घर लिया जाय तिस कारण इस सूत्र का पूर्वापर सम्बन्ध मिला कर यो पथनुमान वाक्य बना लिया जा सकता है, ि