Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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लोक-पातिक
यहां कोई पण्डित एक और आक्षेप करता है, कि उक्त सूत्र और वात्तिा अनुसार जैनों ने कतिपय परमाणूमों का प्रबंध सिद्ध कर दिया है, ऐसी दशा में हमारा कहना है, कि यदि परमाणूत्रों का बंध नहीं होता साधा जायेगा तो फिर उन परमाणूत्रों का कभी बंध हो ही नहीं सकेगा क्योंकि पहिले बौद्धों की ओर से इस बात की पुष्टि यों की जा चुकी है. कि यदि परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ पूर्णरूप से बंध मान लोगे तब तो दो परमाणूगों का द्वघणूक या अनेक परमाणूत्रों का प्रचय केवल एक परमाणूमात्र होजायेगा । बन्ध होने से कोई लाभ नहीं निकला, -ल्टा परमाणूमों का ही खोज खो गया, हाँ यदि इस दोष के निवारण करने के लिये एक देश से परमाणू का दूसरे परमाणु के साथ बंध जाना स्वीकार किया जायेगा तो अखण्ड एक निरंश परमाणूएँ पहिले से ही कई एक देश मानने पड़ेगे यों पुनः उन एक देशोंके साथ परमाणु का संसर्ग मानने पर अनेक दोष आते हैं परमाणु की निरंशता और अखण्डता भी मर जायेगी अतः परमाणु का अन्य परमाणू प्रों के साथ सकलपने या एकदेश करके बध जाना घटित नहीं हुआ।
____ ग्रन्थकार कहते है, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों तो इसी प्रकार सूक्ष्मस्कन्धों के भी बंध जाने के प्रभाव का प्रसंग पाजावेगा उन सूक्ष्म स्कन्धों का भी परम्पर परिपूर्ण रूप से बंध होना मानने पर कई सूक्ष्म स्कन्धों का मिल कर भी केवल एक सूक्ष्म स्कन्ध बरोबर ही पिण्ड होजाने का प्रसंग पाजावेगा सर्वाङ्ग बंध होजाने पर एक परमाणु बराबर या प्रदेशमात्र भी क्षेत्र की वृद्धि नहीं होपाती है, और सूक्ष्म स्कन्धों का परस्पर एक देश से सम्बन्ध स्वीकार करने पर तो उस सूक्ष्म स्कन्ध का अपने एक एक देशों के साथ पुनः एक देश या पूर्ण देश से सम्बन्ध मानने पर अनवस्था या छोटा एकदेश मात्र ही हो जाने का प्रसंग ये दोष आते है। देखिये स्कन्ध के एकदेश का स्कन्ध का अन्य देश के साथ क्या परिपूर्णता से बंध होगा ? अथवा क्या एक-देशेन होगा? बताओ पूणरूप से बच मानने पर उस सूक्ष्म स्कन्ध का अपने एक छोटे से देश बराबर होजाने का प्रसंग आता है, हां एक-देशेन बंध मानोगे तब तो पुनः अन्य एक एक देशों की कल्पना करना बढ़ता चला जाने से अनवस्था दोष आजायेगा यदि सम्पूर्णपने और एकदेश-पने इनसे न्यारे किसी अन्य प्रकार करके उन सक्ष्म स्कन्धों का बंध माना जायेगा तब तो परमाणूत्रों का भी तथैव उस तीसरे प्रकार करके ही बंध होजाओ अतः स्निग्धपन और रूक्षपन इस तीसरे प्रकार से परमाणू का बंध होजाना मान लिया जाय यों प्रतिपक्ष से रहित होकर परमाणों के बध की निरावाध सिद्धि कर दी जाती है।
अब कोई प्रतिवादी प्रतिकूल द्वन्द्वयुद्ध करने के लिये सन्मुख खड़ा नहीं रहता है, तिस कारण से सूत्रकार ने यह बहुत अच्छा कहा है, कि जघन्य गुण वाले परमाणूत्रों का बंध नहीं होता है, गम्भीर विद्वानों के वचन अपरिमित अर्थ को लिये हये रहते हैं, अतः कतिपय परमाणूत्रों के निषेध के समान उसी सूत्र करके कुछ पुद्गलों के बध नहीं होने की सिद्धि का भी संग्रह होजाता है , अथवा "न जघन्यगुणानां" इस उपदेश से कतिपय पुद्गलों के अबध बने रहने की प्रसिद्धि का भी संग्रह होजाता है,