Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
अनेक विशेषणों से रहित होरहे पदार्थ को अप्रामाणिकपना है, यानी कोई भी प्रमाण ऐसे भाव को ग्रहण नहीं करता है, जिसमें कि गुण या पर्याय कोई भी विशेषण नहीं पाया जाय सम्पूण द्रव्यों में अनुजीवी गुण प्रतीजीवीगुण, पर्यायशक्ति प्रात्मकगुण विद्यमान हैं तथा षट्स्थान पतित हानियों या वृद्धियों को ले रही पर्यायें या सप्तभंगियों के विषयभूतधर्म अथवा प्रापेक्षिक धर्म और छोटे बड़े निमित्तों से उपजे अनेक स्वभाव भेद इत्यादि पर्यायें द्रव्यों में विद्यमान हैं, गुणों और पर्यायों से रीता द्रव्य कथमपि नहीं होता है।
अथवेयं त्रिसूत्री समवतिष्ठते, गुण वद्रव्यं पर्ययवद्रव्यं गुणपर्ययवद्रव्यं द्रव्यत्वान्यथानुपपत्त रित्यनुमानत्रयं चेदं संक्षेषतो लक्ष्यते ।
अथवा इस एक सूत्र को तीन सूत्रों का समुदाय समझ कर यों भले प्रकार व्यवस्था कर ली जाती है, कि १ द्रव्यं ( पक्ष ) गुणवत् ( साध्य ) द्रव्मत्वान्यथानुपपत्ते: ( हेतु ) । २ द्रव्यं ( पक्ष ) पर्ययवत् ( साध्यदल ) द्रव्यत्वान्यथानुपपत्त: ( हेतु ) । ३ द्रव्यं ( पक्ष ) गुणपर्ययवत् ( साध्यकोटि ) द्रव्यत्वान्यथानुपपत्ते : ( हेतु ) यों तीन प्रकार एकान्त वादियों के प्रति उक्त सूत्र का योगविभाग कर तीन अनुमान कह दिये जाते हैं । १ द्रव्य गुणवाला है, अन्यथा उसमें द्रव्यपना बन नहीं सकता है। २ द्रव्य में पर्यायें पायी जाती हैं, अन्यथा यानी पर्यायों के विना द्रव्य पन की सिद्धि नहीं होसकती है। ३ गणों और पर्यायों का धारी द्रव्य है ऐसा नहीं मान कर अन्य प्रकार मानने से द्रव्यपना रक्षित नहीं रह सकता है। यों अनेक प्रतिपक्ष विद्वानों के मतों का निराकरण करने के लिये संक्षेप से 'गुणपर्यय वद्रव्य' इस अकेले सूत्र द्वारा द्रव्य को लक्षित कर दिया जाता है हजारों रोगों को एक संजीवनी औषधि पर्याप्त है।
ननु चैवं निष्क्रियं न सर्वद्रव्यसमबायिकारणं चेति पराकृतनिशकृतये क्रियावद्रव्यं समवायिकारणमिति च द्रव्यलक्षणमभिधीयते, पृथिव्यप्तेजोवायुमनसां क्रियावत्व सिद्ध सर्वद्रव्याणां समवायिकारणत्वस्य च गुणवत्त्ववत्प्रतीतेरित्येतदपि च परेषां वचोऽसमीचीनं, द्रव्यवद्विशेषवत्सामान्यवच्च द्रव्यमिति द्रव्यलक्षणवचनप्रसंगात न कार्यद्रव्यवत्कारणद्रव्यं नापि विशेषवत्सामान्यव द्वेति परद्रव्यविप्रतिपत्तिनिराकरणार्थत्वात् । स्याद्वादिनां पुनः कार्यद्रव्यविशेषसदृशपरिणामलक्षणसामान्यानामपि क्रियावत्समवायवच्च पर्यायत्वान्न तथा वचनं कर्तव्यमिति सर्वमनवद्यं ।
यहां वैशेषिक स्वपक्ष का अवधारण करते हैं, कि इस प्रहार गुणपर्ययवद्रव्यं इस सूत्र द्वारा द्रव का लक्षण माप जैन करते है, तब तो इसी प्रकार हमारा द्रव्य का लक्षण भी उचित पड़ जाता है जो वादी पदार्थों को क्रिया रहित स्वीकार करते हैं, जैसे कि वौद्ध पडित पदार्थों में क्रिया नहीं मानते है अर्थात् वौद्धोंका अनुभव है कि उन निवर्ती या दूरवर्ती प्रदेशोंमें गोली,वाण,डेल,पी, रेलगाज़, आदि स्वसभण नवीन का है उपर जाते हैं वही वस्तु तो क्रम क्रम से देशान्तहों में नहीं पहुँच