Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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का परित्याग कर देना चाहिये ।
श्लोक- वार्तिक
इति पंचमाध्यायस्य द्वितीयमान्हिकम् ।
इस प्रकार तत्वार्थशास्त्र के पाँचमे अध्याय का श्री विद्यानन्दी स्वामी महाराज करके रचा गया दूसरा प्रकरणों का समुदाय स्वरूप श्रान्हिक यहां तक समाप्त होचुका है ।
इति श्रीविद्यानंद श्राचार्यविरचिते तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिकालंकारे पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ५ ॥
इस प्रकार प्रकाण्ड विद्वत्ता लक्ष्मी से सुशोभित हो रहे श्री विद्यानन्दी प्राचार्य महाराज करके विशेष रूप से रचे गये इस तत्वार्थश्लोक वार्तिकालंकार नाम के महान् ग्रन्थ में पांचमा अध्याय यहाँ तक भले प्रकार परिपूर्ण हो चुका है।
इस पांचमे अध्याय के प्रकरणों की संक्षेप से सूची इस प्रकार है कि पूर्व के चार अध्यायों में जीव तत्व का निरूपण कर चुकने पर प्रथम ही पंचम अध्याय के आदि में सूत्रकार के धर्म आदि अजीव तत्वों के प्रतिपादक सूत्र की प्रवृत्ति को ग्रन्थकार ने समुचित बताया है। चारों में कायत्व और जीवत्व को घटाते हुये उनको प्रकृति के विवर्त होजाने का प्रत्याख्यान कर दिया है। साथ में श्रद्वतवाद को भी लताड़ा है। वैशेषिकों के अनुसार दिशाद्रव्य को स्वतंत्र निरालातत्व मानने की आवश्यकता नहीं है । इसके आगे द्रव्यत्व का विचार करते हुये धम अधम, आकाश, का भी द्रव्यपना पुद्गल के समान साध दिया है जीव भी स्वतंत्र द्रव्य हैं, कल्पित या भूतचतुष्टय स उत्पन्न हुये नहीं हैं । पुद्गल के रूपीपन और अन्य द्रव्यों के नित्यपन अवस्थितपन और अरूपीपन को युक्तिया से साधते हुये धर्म, अधर्म, आकाश, इन तीन द्रव्यों का एक एक द्रव्य होना अनुमान प्रमाण से समझाया है ।
जीव पुद्गलों का सक्रियपन ध्वनित करते हुये शेष द्रव्यों के निष्क्रियत्व को उचित बताया गया है अन्यों में क्रिया का हेतु होरहा भी पदार्थं स्वयं निष्क्रिय होसकता है । यहां लगे हाथ काल द्रव्य के व्यापकत्व का निराकरण कर काल द्रव्य को भी निष्क्रिय वता दिया है हां अपरिस्पन्दस्वरूप उत्पाद श्रादिक्रियायें तो सम्पूर्ण द्रव्यों में होती ही रहती हैं। यहां श्रात्मा के क्रिया सहितपन को साधते हुये आचार्य महाराज ने वंशेषिकों के दर्शन की अच्छी धज्जियाँ उड़ायी हैं सम्पूर्ण भावों को क्रियारहित मानने वाले वौद्धों को भी सुमार्ग पर लाया गया है । मध्य में अनेक अवान्तरविषयों के खण्डन मण्डन होजाते हैं । धर्म आदि द्रव्यों के प्रदेशों की युक्तिपूर्ण सिद्धि को करते हुये ग्रन्थकार ने आकाश के प्रदेशों का अच्छा विवेचन किया है अत्रों को छोड़ कर सभी पदार्थ सांश माने गये हैं । लोक को अवधि सहित कह कर ग्राकाश का अनन्त प्रदेशित्व बताया गया है। आगे चल कर पुद्गल के संख्याते, असंख्याते, और अनन्ते प्रदेशों को वखानते हुये प्रणु के प्रदेशों का युक्तिपूर्ण प्रत्याख्यान किया है हां छह पंल वाले परमाणु के शक्तिप्रपेक्षा छह श्रंश होसकते हैं अन्यथा परमाणुत्रों से बड़े स्कन्ध का वनना अलीक होजायगा किन्हीं किन्हीं परमाणुओं का दूसरे परमाणुत्रों के साथ सर्वांग संयोग होजाना भी