Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक- वार्तिक
सासूवः ॥२॥
जो ही पूर्व में कहा गया तीन प्रकार का योग है वही आस्रव है । अर्थात् आत्मा की योग नामक परिणति करके दूरदेशवर्त्ती कर्म नोकर्म इस आत्मा के पास खिंचे चले आते हैं अथवा सम योग्य पुद्गलपिंड भी कर्मपने करके परिणत हो जाते हैं वह आस्रव है । आस्रवति कर्म अनेन यह निरुक्ति अच्छी है।
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स व इत्यवधारणात् केवलिस मुद्धातिकाले दंडकपाटप्रतरलोक पूरणकाययोगस्यास्त्रवत्वव्यवच्छेदः । कायादिवर्गणालंवनस्यैव योगस्यास्रवत्ववचनात् । तस्य तदनालंबनत्वात् । कथमेवं च केवलिनः समुद्घातकाले सद्वेद्यबंधः स्यादिति चेत्, काय वर्गणानिमित्तात्मप्रदेश परिस्पन्दस्य तन्निमित्तस्य भावात्स इति प्रत्येयं ।
“स आस्रवः” इस सूत्र के उद्देश्यदल में एवकार लगाकर "वह योग ही आस्रव है" इस प्रकार अवधारण करने से तेरहमे गुणस्थानवर्ती केवली के समुद्घातकाल में दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपूरण अवस्थाओं के काययोग को आस्रवपन का व्यवच्छेद कर दिया गया है। क्यों कि काय आदि तीन प्रकार की वर्गणाओं का आलम्बन ले रहे ही योग के आस्रवपन का यहाँ कथन है और वह दण्ड आदि अवस्थाओं का योग तो उन वर्गणाओं का आलम्बन नहीं करता है । हाँ उससे पहिले के योग तो वर्गणाओं को आलम्बन कारण मानकर उपजते हैं । भावार्थ- जब केवली भगवान् की अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रह जाती है यदि उस समय शेष तीन अघातिया कर्मों की भी स्थिति उसके तुल्य है तब तो केवलिसमुद्घात नहीं किया जाता है । और जब अन्तर्मुहूर्त स्थितिवाले आयुकर्म से वेदनीय, नाम, गोत्र,कर्मों की स्थिति अधिक होय तब निरिच्छ आत्मपुरुषार्थ द्वारा सयोगी भगवान् चार समयों में दण्ड आकार, कपाट आकार, प्रतर आकार और लोकपूरण रूप से आत्मप्रदेशों को फैला देते हैं। पुनः उतने ही समयों में संकोच कर चारों कर्मों की स्थिति समान कर लेते हैं। उस समय का योग आस्रव नहीं है । क्योंकि उस योग की उत्पत्ति मैं काय आदिवर्गणायें अवलम्ब हेतु नहीं हुई हैं। वह शुद्ध योग केवल कर्मों की शक्ति का नाश करने वाले स्वभावों के धारी आत्म प्रयत्न से ही उत्पन्न हुआ है । यदि यहाँ कोई यों प्रश्न उठावे कि इस प्रकार दण्ड आदि अवस्थाओं के योग को आस्रवपन का व्यवच्छेद कर देने पर भला केवली भगवान् के समुद्घात काल में साता वेदनीय कर्म का बंध कैसे होगा ? बताओ । अर्थात् – “समयट्ठिदिगो बंधो,, समयियट्ठि दीसाद" यों तेरहमे गुणस्थान में एक समय स्थितिवाले सातावेदनीय कर्म का बंध कहा है और बंध आस्रवपूर्वक होता है । जब समुद्घात कालमें केवली के आस्रव ही नहीं मानते हो तो बंध कैसे होगा ? यो प्रश्न करने पर तो आचार्य कहते हैं कि गृहीत हो चुकी कायवर्गणा को निमित्त पाकर हुए आत्म प्रदेशों के परिस्पन्द का वहाँ सद्भाव है, जो कि उस बंध का निमित्त है अतः उस परिस्पन्द से वह सद्वद्य
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बंध हो जाता है । वली समुद्घात काल में सूक्ष्मयोग माना गया है। उसको निमित्त पाकर स्वल्प बंध हो गया है । दण्ड आदि योग उस बंध का निमित्त नहीं है । अतः परिस्पन्द हेतुक बंध हो जाने में कोई बाधा नहीं पड़ती है । किन्तु केवली समुद्घात के योग को आस्रव नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि वहाँ काय, वचन और मनका अवलम्ब पाकर आत्मा का प्रदेशपरिस्पन्द नहीं हुआ है । यों
सूक्ष्मतत्त्व का