Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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छठा-अध्याय
४३५ ध्यान को धारता है । पश्चात्-प्राण, अपान, प्रचार आदि सूक्ष्म क्रियाओं का भी उच्छेद कर चौदहमे गुणस्थान में समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति नामक ध्यान का आश्रय हो रहे अयोग केवली आत्मा के प्रदेशों का कम्प नहीं हो पाता है। इस ही कारण से सिद्ध आत्माओं के कम्प होने का अभाव समझा दिया गया है । अतः प्रदेशों का परिस्पन्दस्वरूप योग नहीं होने से उन सिद्धों का भी अयोग केवलो इस शब्द द्वारा कथन किया जा सकता है । यद्यपि चौदहमे गुणस्थान वाले अयोग केवलीके व्युपरतक्रियानिवति ध्यान है और सिद्धों के समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक चौथे शुक्लध्यान का आश्रयपना सिद्ध नहीं है तथापि अवक्तव्य होकर अयोगपना सिद्धों में व्यवस्थित है। कारण कि सिद्ध भगवान् नहीं कथन करने योग्य चारित्र के साथ तन्मय हो रहे हैं। भावार्थ-योग नामक पर्याय शक्ति तेरहमे गुणस्थान तक ही पायी जाती है । बहिरंग क्रियाओं और अन्तरंग क्रियाओं का निरोध होना चारित्र है। चारित्रमोहनीय कर्म के उदयसे चारित्र गुणका विभाव परिणाम होता रहता है । संसारी जीवोंके पूज्य चारित्रका स्वरूपाचरण देश चारित्र, सकल चारित्र, यथाख्यात चारित्र, अथवा सामायिक छेदोपस्थापना आदि शब्दों द्वारा निरूपण करा दिया जाता है, सिद्धों के चारित्रका शब्दों द्वारा कथन नहीं हो सकता है। अस्तित्व, वस्तुत्व, चेतना, वीय, आदि अनुजीवी गुण भी अनादि अनन्त काल तक जीवों में ठहर रहा है। सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरु लघु, अन्याबाध, इन आठ गुणों में कण्ठोक्त रूप से चारित्र गुण को परिगणित नहीं किया है फिर भी अनेक निर्विकल्पक गण आत्मा में व्यपदेश किये बिना ही प्रतिष्ठित हो रहे हैं केवल अपने स्वरूप में ही निष्ठा बनी रहना चारित्र है । अतः सिद्धिलाभ, आत्मस्वरूपप्राप्ति, चारित्र इनको शब्दों करके स्वतंत्र रूप से व्यपदेश करने की आवश्यकता नहीं है। नहीं व्यपदेश करने योग्य चारित्र के साथ योगरहितपना भी तन्मय हो रहा है । आत्मा में अनेक गुण या अनन्तानन्त स्वभाव अन्तर्गुढ हो रहे हैं । सच बात तो यह है कि वस्तु के सम्पूर्ण अंशों का सर्वांग निरूपण हो नहीं सकता है। जो निर्विकल्पक या अव्यपदेश है वही परिपूर्ण है। अतः काय, वचन, आदि के उपयोगी वर्गणाओं का अवलम्ब नहीं होने से सिद्धों के योग मान लेना समुचित नहीं है । तिस कारण सिद्ध हो जाता है कि वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम अथवा क्षय होने पर काय आदि वर्गणाओं की लब्धि हो जाने से जीवों के प्रदेशों का परिस्पन्द होना योग है जो कि काययोग, वचनयोग, मनोयोग यों तीन प्रकार का विश्वास कर लेने योग्य है । अर्थात् बारहमे गुणस्थान तक जीवों के योग का अन्तरंग कारण वीर्यान्तरायका क्षयोपशमपुद्गल विपाकी शरीर नाम कर्म का उदय, अक्षराद्यावरणक्षयोपशम, मन इन्द्रियावरण क्षयोपशम आदि हैं और तेरहमे गणस्थान में अन्तगय और ज्ञानावरण कर्मों का क्षय उस योग का कारण पड़ जाता है । योग के बहिरंग अवलम्बवर्गणा आदि हैं, आवरण और अन्तराय का क्षय हो जाने पर भी तीनों प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा रखता हुआ सयोगकेवली भगवान के आत्म प्रदेशोंकी सकम्प अवस्था रूप योग है । वहाँ काययोग, वचनयोग, मनोयोग ये तीनों विद्यमान हैं । औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, कार्मणकाययोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग, सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग ये उक्त योगों के सात भेद तेरहमे गुण-स्थान में हैं।
कोई शिष्य प्रश्न करता है कि उक्त तीन प्रकार के योग को हमने समझ लिया है किन्तु पाँचमे अध्याय तक जीव, अजीव, तत्त्वों का निरूपण कर चुकने पर प्रकरण प्राप्त आस्रव तत्त्व का इस समय निर्देश करना चाहिये था। इसके लिये टालमटूल क्यों की जा रही है। इस प्रकार प्रश्न होने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं।