Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
द्रव्य का ही उपाधिरहितपन की अधीनता से ही शुद्धद्रव्य और विशेषणों से सहित ग्न के वश से अशुद्ध द्रव्य यों व्यपदेश होजाता है। देवदत्त कह देने से कृण्डलरहित और कुण्डलसहित दोनों ही अकुण्डल या कुण्डली देवदत्तों का परिग्रहण होजाता है हां उन नयों का विस्तार तो चाहे कितना भी वढ़ा लो जिस प्रकार कि शास्त्रों में वर्णित है उसको इस प्रकार समझा जा सकता है सुनिये ।
शुद्धद्रव्याथिकोऽशुद्धद्रव्यार्थिकश्चेति द्रव्याथिको द्वेधा । तथा सहभावीपर्यायाथिकः क्रममावी पर्यायायिकश्चेति पर्यायार्थिको पि द्वधा अभिधीयतां ततस्यादिसंख्गा न वार्यत एव द्विभेदस्य पर्यायार्थिकस्यैकविधस्य द्रव्यार्थिकस्य विवक्षायां नयत्रितयामद्ध। पाँयार्थिकस्यैकविधस्य द्रव्यार्थिकस्य विभेदस्य विवक्षायामित्ति कश्चित् द्वयोविभेदयोर्विवक्षायां तु नयचतुष्ट यमिष्यते ।
द्रव्यर्थिक और पर्यायाथिक नयों का प्रपंच यों है कि शुद्ध द्रव्याथिक और अशुद्ध द्रव्याथिक इस प्रकार पहिला द्रव्याथिक नय दो प्रकार का है कर्म नोकर्मों से रहित शुद्ध आत्मा या पुद्गल परमागये अथवा धर्म, अधर्म, अाकाश, काल इन शद्ध द्रव्यों को विषय करने वाला शद्ध द्रव्याथिक नय है तथा क्रोधी आत्मा ज्ञानवान प्रात्मा स्कंध आदि को जानने वाला प्रशद्ध द्रव्याथिक नय है : तिसी प्रकार पर्यायार्थिक नय भी सहभावी पर्यायाथिक और क्रमभावी पर्यायाथिक यों दो प्रकार का कथन कर लेना चाहिये सहभावी गुणों और क्रमभावी पर्यायों को जानते रहना इनका प्रयोजन है तिस कारण नयों की तीन, चार, पांच आदि संख्याओंका भी निवारण नही किया ही जाता है देखिये उक्त दो भेदों वाले पर्यायर्थिक नय और केवल एक प्रकार के द्रव्याथिकनय की विवक्षा करने पर नयों के तीन अवयव ( भेद ) भी सिद्ध होजाते हैं अथवा नयों की तीन संख्या को कोई विद्वान् यों परिभाषित करते हैं कि एक प्रकार की पर्यायाथिकनय तथा शुद्धद्रव्याथिक और अशुद्ध द्रव्यार्थिक यों दो द वाली द्रव्याथिक नय की विवक्षा करने पर ये नयों के तीन भेद होजाते हैं इसी प्रकार उक्त दोनों नयों के शुद्ध द्रव्याथिक, अशुद्ध द्रव्याथिक, सहभावी पर्यायाथिक और क्रमभावी पर्यायाथिक यों दो दो भेदों की विवक्षा करने पर तो चारों प्रकारोंवालों नये इष्ट करली जाती हैं । कोई सिद्धान्त वाधा नहीं है ।
तैन नैगमसंग्रहव्यवहारविकल्पादद्रव्याथिकम्य त्रिविधस्य पर्यायार्थिकम्य चार्थप र्यायव्यंजनपर्यायाथिकभेदेन द्विविधस्य विवक्षायां नयपंचकं शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकद्वयस्य ऋजुसूत्र दिपर्यायार्थिकचतुष्टयस्य विवक्षागं नयषक, नैगमादिसूत्रपाठापेक्षया नयसप्तकामति । नयानाम प्टादिसंख्यापि न वार्यते । ततो न गुणेभ्यः पर्याणणां कथंचिद्भ देन कथनमयुक्त येन गुग पर्य: यवद्रव्यमिति द्रव्यलवणं निर वधन भवेत् ।
तिस ही कारण यानी विस्तार करके निरूपण कर देने से नय पांच, छः, सात, पाठ, आदि भी होसकते हैं उनको यो सम्भालिये कि नंगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय इन भेदों से द्रव्याथिकनय के तीन प्रकार हैं तथा अर्थ पर्याय को विषय करने वाली अर्थपर्यायाथिकनय और व्यंजनपर्याय को जान