Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
पंचम-अध्याय
४२७
को ठीक चार दिशाओं में कर रख दी गई चार वफियों के ऊपर अन्य चार वफियों के आकार वाले ये आठ प्रदेश विचारे चित्रा और वज्रा पृथ्वी के दोनों पाटों के बीच में हैं । अर्थात् यहां से एक हजार योजन नीचेचित्रा की जड में ऊपरले चार प्रदेश हैं । और नीचले चार प्रदेश वजा के उपरिमभाग में हैं । यो सर्वाकाश या लोकाकाश का ठीक बीच सुदर्शन मेरु की गोलासपाट जड़के मध्यमें पड़े हुये आठ प्रदेश हैं । प्रसंग वश त्रसनाली मध्यलोक रत्नप्रभा, स्वयंभूरमण समुद्र जम्बू द्वोप भरत क्षेत्र और प्रार्यखण्ड का चित्र भी समझ लेना आवश्यक है।
प्रकरण में मुझे यह कहना है, कि अलोकाकाश के मध्य में स्थित जगत् श्रेणी के घनप्रमाण असंख्यातासंख्यात नाम की संख्या को धार रहीं कालाणुषों अथवा अखण्ड धर्म-अधर्म द्रव्यों की व्यंजन पर्यायों ( आकृति ) अनुसार ३४३ घनराजू के लोकाकाश की कल्पना की गई है।
लोकके वहिः प्रान्त में सव (छ ऊ) और तनुवातवलय वेष्टित होरहा है। वहां अन्य भी द्रव्य पाये जाते हैं । तनुवातवलय के अंतिमभागों में निवस रहे वायु कायिक जीव या निर्जीव वायु अथवा धर्म अधर्म द्रव्यों यावहाँ की पुद्गल वर्गनायों की प्राकृति क्या हैं ? इसका यहां विचार करना है।
देखिये- लोक का ७ राजू लम्बा १ राजू चौड़ा उपरला भाग सपाट चोकोर है। वहां के कालाणुगों या धर्मअधर्म द्रव्यों का उपरिमभाग ईट के खङजा और पटिया के समान ठीक समतल वन रहा है । कोई ऊचा-नीचा भाग नहीं हैं । इसी प्रकार लोकाकाश या धर्म अधर्म द्रव्यों का ७राजूलम्वा सात राजू चौड़ा अधस्तन भाग भी समतल होकर अधोवर्ती अलोकाकाश से छू रहा है उसमें ऊंच नीच की विषमता सर्वथा नहीं है। वहां की कालाणुयें मकराने के जड़े हुये चौकाओं के समान समतल होकर जमरही हैं। तथा लोक की दक्षिण, उत्तर वाज की भीतें ईटों की सपाट दीवालों के चिकनी होरहीं ऊपर उठी हुई हैं।
वहां के कालाणुओं और परमाणुओं के पैल चिकने होरहे एक के ऊपर एक यों सपाट एकसे जमे हुये है । ऐसी ही तत्रस्थ दोनों धर्म, अधर्म द्रव्यों सपाट चिकनी अवस्था है। खुरदरी नहीं है। जैसे कि संगमरमर की पटिया खड़ी कर दी जाती है।
किन्तु लोक के पूर्व पश्चिम भाग की वाजुएं सपाट पटिया के समान चिकनी नहीं है । क्योंकि नीचे ७ सात राजू लम्वे अधोलोक से मध्यलोक तक क्रमसे घटता हुना लोक १ एक राजू चौड़ा रह गया है। अखंडघन चौकोर चीजों को यदि क्रमसे घटाकर तराऊपर रक्खा जायगा तो उनका जीना वनते ही घटी हो सकती है। यदि ईटों के कोने न छीले जांय और उनको क्रम से घटाते हुए ऊपर को चिना जाय तो अवश्य ही उस रचना में ईटों के कोने निकले रहेंगे। चुकि ईट को कारीगर तिरछा छील देता है सीमेन्ट से लीप देता है , अतः स्थूलदृष्टि जीवों का जीने की वाजू की ढलाऊदीवाल ऊपर से नीचे तक चिकनी सपाट बनाई दीख जाती है। किन्तु वरफी के समान छह पैलू अठकौनी, अखण्ड, परमाणु की नौकें या पैल घिसे काटे, छीले नहीं जा सकते हैं । अत: लोक के पूर्व पश्चिम प्रान्त की