Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
श्लोक- वार्तिक
गया है । अन्तिम हद दर्जे के छोटे परम सूक्ष्म परमाणु की इससे अधिक और क्या प्रशंसा हो सकती है । तभी तो एक एक प्रदेश पर अनंत अनंत परमाणुओं निरापद ठहर रही हैं फिर भी सर्वावधिज्ञानी या केवल ज्ञानी महाराज जो कुछ पुद्गल परमाणु की प्राकृति देखेंगे उन्हें वह घन चौकोर छह पैल वाला श्राठ कोनोंको लिये प्रखंड द्रव्य प्रतीत होगा इसी बातको श्रीश्राचार्य वीरनंदी सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री आचारसार ग्रंथ के तृतोयाधिकार में लिखा है कि
४२६
•
अणुश्च पुद्गलोऽभेद्यावयत्रः प्रचय शक्तितः गायश्च स्कन्धभेदोत्थश्चतुरस्रस्त्वतीन्द्रिय ॥
यों परमाणु के छः पैल हैं । तभी तो परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ एक पैल से संसर्ग हो जाने पर छोटे, बडे, बहुत बड़े अवयवी वनकर तैयार हो जाते हैं जैसे कि ईंटोंका ईटोंके साथ एक देश संम्बध होजाने पर बड़े बड़े महल बन जाते हैं। यदि ईंट का दूसरी ईंट के साथ सर्वाग रूप से सम्बंध हो जाय तो कोठरी, महल, किला, ये सब ईंट के बरोबर हो जायगे
इसी प्रकार परमाणु को सर्वथा निरंश माना जायगा तो, परमाणु, सरसों, मेरुपर्वत परमाणु वरोवर इन सबको के समान परिमाणु वाले बरावर हो जाने का प्रसंग दूर नहीं हो सकेगा ।
“भेदादणुः " इस सूत्र अनुसार प्रणु की उत्पत्ति भेद से हुई मानी गई है । इस पर गंभीर विचार करने से प्रतीत होता है कि वस्तुतः परमाणु चौकीर । भेद करने से गोल चीज नहीं वन सकती है । टुकड़ा करने पर एक ओर सपाट भींत अवश्य वन जाती है जब कि परमाणु की छैऊ भींते एक्सी हैं तो उसका प्राकार समघन चतुरस विज्ञान से भी स्वाभाविक सहज सिद्ध होजाता है । ग्रलम् ।
पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व, अधः यो छेऊ और चौकोने एवं घन चौकोर होरहे इस लोकाकाश के ठीक बीच में लोकाकाश विराजमान हैं ।
यदि लोकाकाश जगत् श्रेणी की पूरी समधन चतुरस्र आकृति की सूरत में होता तो 'ठीक वीच शब्द अच्छा सुघटित होजाता किन्तु लोकाकाश चौदह राजू ऊँचा तथा अधो लोक में सात राजू लम्बा चौड़ा और मध्य लोक में एक राजू चौड़ा सात राजू लम्बा एवं ऊपर क्रम से चौड़ाई में बढता हुआ ब्रह्मलोक के निकट ५ राजू चौड़ा ७ राजू लम्बा होगया है । और चौदह राजू ऊपर जाकर तो सात राजू लंबा एक राजू चौड़ा होकर विषम आकृति को लिये हुये है अतः संभव योग्यतानुसार 'ठीक वीच'यों लिख दिया है, अन्यथा ऐसे पांव पसारू पतले पेट वाले कुवड़ेमनुष्यके समान विषम प्राकृति वाले पदार्थ का चौकोर पदार्थ के ठीक बीच में पाया जाना असंभव ही है, यदि मध्य लोक के पूर्व पश्चिम सम्बंधी अ ंतिम भाग से पूर्व या पश्चिम के अलोकाकाश को नापा जाय तो वह मध्य लोक के उत्तर दक्षिणवर्त्ती लोकाकाश से तीन तीन राजू वढ़ जायगा । इसी प्रकार लोकाकाश के मध्य लोक संबधी उत्तर दक्षिण भाग की प्रपेक्षा ऊर्ध्व या प्रधोलोक के ऊपर नोचे का भाग साढे तीन, साढे तीन राजू कमती है ।
छः ऊ और समधारा की संख्या के धारी प्रदेशों वाले घन चतुरस्र अलोकाकाश का ठीक बीच आठ प्रदेश समझलिये जांय । समघनात्मक संख्या वाले पदार्थों के ढेर का बीच आठ होसकता है । द्विरूप वर्ग धारा में पड़े हुये मात्र श्रेणी श्राकाश का सबसे छोटा ठीक बीच र प्रदेश हैं । और केवल प्रतराकाश का लघु बीच चार प्रदेश है, तथा घन सर्वाकाश का जघन्य ठीक बीच आठ प्रदेश ही होसकते हैं । झठ से कम प्रदेश उसका ठीक मध्य भाग नहीं होसकते हैं। एक एक बरफी की चारों वाजुनों
1