Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-ध्याये
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काल का सम्पूर्ण द्रव्यों के साथ संयोग तो हो ही रहा है जो कि कोई संयोग तो सादि है। और कोई संयोग अनादि है यहां वहां जा रहे जीव और पुद्गलों का उन उन प्रदेशों में वर्त रहे कालाणुओं के साथ हुआ संयोग सादि है और अखण्ड धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्यों के साथ उन उन कालाणुओं का अनादि संयोग है। इसी प्रकार अध्यापक और क्रियावाले जीव द्रव्यों या पुद्गल द्रव्यों के साथ हुआ विभाग भी काल का गुण है, यहां यह कहना है कि वैशेषिकों ने विभाग को संयोग का नाश करने वाला सादि गुण माना है किन्तु धर्म आदिकों के प्रदेशों की अपेक्षा काल का अनादि विभाग भी होसकता है सुदर्शन मेरु की जड़ में ठहर रहे कालाणुओं का सर्वार्थसिद्धि गत धर्म, अधर्म, प्राकाश के प्रदेशों के साथ होरहा विभाग अनादि है रत्नप्रभा से संयुक्त होरहे कालाणुरों का सिद्ध जीवों के साथ अनन्त काल तक के लिये विभाग हो गया है।
यदि परम पूज्य सम्मेदशिखर पर जघन्य युक्तानन्त प्रमाण अभव्य जीवों का जन्म लेना नहीं स्वीकार किया जाय तो सम्मेदशिखर के सम्बन्धी कालाणुओं का अभव्यों के साथ अनादि विभाग कहा जा सकता है अलोकाकाश के प्रदेशों के साथ तो सभी कालाणुषों का अनादि अनन्त विभाग है, यों काल में संयोग, विभाग, गुणों को साध दिया गया है । यद्यपि संयोग या विभाग कोई अनुजीवी गुण में नहीं गिनाये गये हैं जैन सिद्धान्त अनुसार संयोग विभागों को पर्याय कहा जा सकता है । नित्य परिणामी गुण नहीं। तथापि वैशेषिकों के यहां संयोग विभागों की गुणस्वरूप से प्रसिद्धि होने के कारण तथा उल्लेख योग्य प्रधान पर्याय होने से संयोग और विभाग को गुण कह दिया है।
वात यह है कि जैन ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर अन्य मतों की प्राभा पड़ जाती है जिसका कि विशेष क्षति नहीं होने के कारण क्वचित् लक्ष्य नहीं किया जाता है, वस्तुतः यथार्थ विचार करने पर गम्भीर विद्वानों को उस मिले हुये प्राभास का स्पष्टी क रण कर देना चाहिये अन्यथा कदाचित इसका भयंकर परिणाम होजाता है। वृद्ध पुरुष का चंचल, अलवेली, युवती के परिणयन समान इस जैन दशन का अन्य दर्शनीय वाचारों के योग कर देने की टेव से कदाचित् अक्षम्य अपसिद्धान्तों की उत्पत्ति होजाती है । यहाँ ग्रन्थकार महाराज ने वैशेषिकों को समझाने के लिये संयोग और विभाग को काल का गुण कह दिया है संख्या, परिमाण, आदि भी काल के गुण हैं, वैशेषिकों ने भी कालद्रव्य के संख्या, परिमाण पृथत्व संयोग विभाग, ये पांच गुण इष्ट किये हैं वस्तुतः विचारा जाय तो संख्या कोई प्रतिजीवी या अनुजीवी गुण नहीं हैं, केवल आपेक्षिक धर्म ( गुण ) है।
गोल चलनी का कोई भी छेद दसवां, पचासवां, सौवां, डेढ़सौवां, आदि अनेक संख्यों वाला होसकता है हजार रूपये की थैली में चाहे कोई भी रुपया अन्यों की अपेक्षा से गिना गया वीसवां, दोसौवां, हजारवां होजाता है। गुण की परिभाषा तो यह है कि जो अपने से विपक्ष को नहीं धार सके पुद्गल में रूप गुण है तो वहां ही रूपाभाव गुण नहीं ठहर सकता है जीव में चेतना गुण का कोई सहोदर अचेतना गुण नहीं है , परिमाण भी प्रदेशवस्व गुण का विकार व्यंजन पर्याय है, केवल अन्य