Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम- धध्याय
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प्रथवा रूप, चेतना गतिहेतुत्वादयो ( पक्ष ) गुरणा: ( साध्य ) द्रव्याश्रयत्वे सति निर्गुणत्वात् ( हेतु ) इस अनुमान के हेतु का कार्य द्रव्यों से व्यभिचार दोष नहीं आपाया है ।
एतेन घटसंस्थानादीनां गुणत्वं प्रत्युक्तं तेषां पर्यायत्वात् ।
इस उक्त कथन करके यानी " द्रव्याश्रयाः" और निर्गुणा, इन दोनों पदों की कीर्ति कर देने से घट की प्रकृति या मतिज्ञान आदि का गुणपना भी खण्डित कर दिया गया है क्योंकि वे श्राकृति घटज्ञान, ये सब पर्यायें हैं प्रदेशवत्व गुण का विकार आकृति है चेतना गुणका परिणाम मतिज्ञान है । अतः गुणों की पर्यायें गुणों में रहती हैं द्रव्यों में नहीं । यदि पुनरपि घट की संस्थान यादि पर्यायों को घट आदि द्रव्यों के आश्रित होते सन्ते गुण रहित स्वीकार किया जायगा तब तो "द्रव्याश्रया" इस पद की विशेष व्याख्या से ही उक्त प्रतिप्रसंग दोष टल जायगा "ये द्रव्यं" नित्यमाश्रित्य वर्तन्ते त एव गुणाः, जो नित्य ही द्रव्य के प्राश्रित होकर ठहरते हैं वे ही गुरण हो सकते हैं पर्यायें तो कदाचित् ही द्रव्य में ठहरती हैं क्योंकि " क्रमभाविनः पर्यायाः ।" "सहभाविनो गुणाः" ये गुण और पर्यायों के सिद्धान लक्षण हैं ।
कः पुनरसौ पर्याय इत्याह ।
यहाँ प्रश्न उठता है कि गुरण का लक्षण समझ लिया हैं कई वार परिणाम शब्द प्राया है। "गुरणपर्ययवद्द्रव्यं" सूत्र के गुण का व्याख्यान कर चुकने पर पर्यायका लक्षण करना क्रम प्राप्त है अतः ताओ की वह पर्याय फिर क्या है ? ऐसी तत्व निरिंगनीषा प्रवतने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।
तद्भावः परिणामः ॥ ४२ ॥
धर्मादिक द्रव्य जिस
स्वरूप करके होते रहते हैं वह तद्भाव है वही परिणाम यानी पर्याय कहा जाता है । अर्थात् जीव, पुद्गल, आदि द्रव्यों के या चेतना, रूप, गतिहेतुत्व, श्रादि गुणों के तद्भाव स्वरूप विवर्तों को परिणाम कहते हैं ।
जीवादीनां द्रव्याणां तेन प्रतिनियतेन रूपेण भवनं तद्भावः तेषां द्रव्याणां स्वभावो वर्तमानकालतयानुभूयमानस्तद्भावः परिणामः प्रतिपत्तव्यः सच
जीव आदि द्रव्यों का उस प्रतिनियत होरहे स्वरूप करके अन्तरंग, वहिरंग, कारणवश जो परिणमन है वह तद्भाव है । इसका तात्पर्य यह है कि उन उन द्रव्यों का विपक्षित वर्तमान काल में प्रर्वत रहे स्वरूप करके अनुभव किया जारहा स्वभाव ही तद्भाव है तद्भाव को यहाँ परिणाम समझ लेना चाहिये और यों वह क्या निर्णीत हुआ इसको अग्रिम वार्तिक द्वारा समझिये ।
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