Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
श्लोक- वार्तिक
द्रव्यतस्तु लोकाकाशप्रदेशपरिमाण कोऽसंख्येय एव कालो मुनिभिः प्रोक्तो न पुनरेक एवाकाशादिवत, नाप्यनंत : पुद्गलान्मद्रव्यवत् प्रतिलोका काशप्रदेश वर्तमानानां पदार्थानां वृत्तिहेतुत्वसिद्धेः ? लोकाकाशाद्व हिस्तदभावात् ।
:
४१२
द्रव्य सद्भाव से विचार करने पर तो वह काल लोकाकाश के प्रसंख्यातासंख्यात प्रदेशों वरोवर परिमाण (संख्या) का धारी होरहा असख्येय ही मुनी महाराजों ने बहुत अच्छा कहा है । " लोयायास पदे से इनके क्के जेट्टिया हु इक्केवका रयणाणं रासी मिवते कालागु श्रसंखदव्वारिण " 1 किन्तु काल द्रव्य फिर आकाश, धर्म, अधर्म, इन तीन द्रव्यों के समान ( व्यतिरेकदृष्टान्त एक ही नहीं है तथा पुद्गलद्रव्य या श्रात्म द्रव्यों के समान वह काल अनन्त द्रव्यें भी नहीं हैं । अर्थात् — जैसे धर्म, धर्म, श्राकाश, ये तीन द्रव्ये एक एक हैं वैसा काल द्रव्य एक ही द्रव्य नहीं हैं। अथवा जैसे जीव और पुद्गल प्रत्येक द्रव्य अनन्तानन्त हैं वैसे कालायें अनन्तानन्त नहीं हैं किन्तु लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेशपर वर्त रहेअनेक पदार्थों की बतना का हेतु होने के कारण कालागु द्रव्य एक एक प्रदेश पर ठहर रहे एक एक काला द्रव्य अनुसार भनेव हैं यों प्रसंख्याते काल द्रव्यों की सिद्धि होजाती है । लोकाकाश से बाहर उन कालानों का प्रभाव है ग्रसम्भवद्वाधक होने से श्रागम प्रमाण द्वारा और कुछ ग्रनुमानों से भी अत्यन्त परोक्ष पदार्थों की सिद्धि होजाती है ।
कथमेव लोकाकाशस्य वर्तनं कालकृतं युक्तं तत्र क'लम्यासंभवादिति चेत् अत्रोच्यते
यहां कोई प्रश्न करता है कि लोकाकाश से बाहर जब कालायें नहीं हैं और कालायें ही सम्पूर्ण द्रव्यों की वर्तनाओं को कराती हैं तो बताओ फिर अलोकाकाश की वर्तना होना भला काल से किया गया किस प्रकार युक्तिपूर्ण कहा जा सकता है क्योंकि वहां लोकाकाश में काल द्रव्य का असम्भव है । यों प्रश्न करने पर तो इस प्रकरण में ग्रन्थकार द्वारा यह अग्रिम वार्तिक कहा जाता
1
लोकारिभावे स्याल्लोकाकाशस्य वर्तनं । तस्यैकद्रव्यतासिद्धेयुक्तं कालोपपादितं ॥ २ ॥
लोक सेवाहर कालानों का प्रभाव होने पर भी लोकाकाश का वर्तना तो कालाओं करके हुआ अभीष्ट किया ही गया है। जब कि उस लोकाकाश, और अलोकाकाश का एक अखण्ड corder सिद्ध है इस कारण उस अलोकाकाश की वर्तना भी यहां ही के कालाणुओं द्वारा उपपन्न करा दी जाती है। वात यह है कि लोक और प्रलोक के वीच में कोई भींत नहीं पड़ी हुयी है और भींत या वज्रपर्वत भी पड़ा हुआ होता तो ग्रप्राप्यकारी कारणों के कार्यों में वह दीन वज्र विचारा क्या प्रतिवन्ध कर सकता था। तेजस, कार्मण, शरीर ही अनेक योजनों मोटी शिलाओं के बीच में होकर निकल जाते हैं पुण्य, पाप, या तीर्थंकर प्रकृति श्रप्राप्य होकर ही श्रसंख्य योजनों दूर के कार्यों को कर रहे हैं फिर कारणों की शक्तियों का परामर्श करते हुये डर किसका है इसी प्रकार त्रसनाली के प्रत