Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
गुणों का लक्षण सूत्रकार द्वारा स्वयं आगे "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" यों कहा जाने वाला है, और "तद्भावः परिणामः' यों पर्यायों का भो जाति मुद्रया लक्षण कह दिया जायेगा । यद्यपि गुणों की संख्या से पर्यायों की संख्या अनन्तगुणी है, गुणों के लक्षण सूत्र में बहुबचन और पर्याय के लक्षण सूत्र में एक वचन का प्रयोग करना सूत्रकारका साभिप्राय प्रयत्न है । पर्यायों के सामान्य की अपेक्षा एक वचन का प्रयोग बड़े महत्व का हो जाता है, जैसे कि माता, पिता. गुरु अपने पुत्र अथवा शिष्य का एक वचन या युष्मद् शब्द प्रयोग अनुसार उच्चारण करते हैं, भक्त अपने पाराध्य देवता का एक वचन युष्मद् पद करके जब प्रयोग करता है तब एक विलक्षण प्रकार का ही अलौकिक प्रानन्द प्रात्मामें उमड पडता है. "जनानां समदायो जनता" "महारण्यमरण्यानी" "द्रव्यं जीवाजीवौ" इत्यादि पद अपरिमित संख्यात्रों को लिये हुये हैं। यहां नित्ययोग में मत् प्रत्यय है, अर्थात्-गुणों का और पर्यायों का द्रव्य में नित्य ही योग बना रहता है, अविनाशी गुण तो द्रव्य में सदा रहते हैं. हां उत्पादविनाश-शालिनी पर्याय व्यक्तिरूप से कदाचित् पायी जारहीं सदा नहीं ठहरती हैं. किन्तु सामान्य अपेक्षा करके कोई न कोई पर्याय द्रव्य में बनी ही रहती हैं, धारा-प्रवाह रूप से पर्यायों का सद्भाव द्रव्य में सतत विद्यमान है।
द्रव्य शब्द की निरुक्ति यों है, कि जो अपनी उन उन पर्यायों का वर्तमान में द्रवण कर रहा है भविष्य में द्रवण करेगा और जो भूतकाल में द्रवण कर चुका है. वह द्रव्य है । यों तीनों काल सम्बन्धी द्रवण की अपेक्षा द्रव्य इस शब्द की निरुक्ति करना भी विरुद्ध नहीं पड़ता है, यानी निरुक्ति से लब्ध होरहे अर्थ और लक्षण द्वारा प्राप्त होरहे अर्थ में कोई विरोध नहीं है, सामान्य विशेष का अन्तर भले ही समझ लिया जाय जल या दूध विना प्रयत्न हो के जैसे नोचे प्रदेश में बहने लग जाता है, उसी प्रकार द्रव्ये स्वभाव ही से तीनों काल अपनो तदात्मक पर्यायों में द्रवण करती रहती है ।
पर्यायों का सामान्य की अपेक्षा नित्ययोग इसीलिये कहा है, कि पर्यायों के व्यक्तिविशेषों की अपेक्षा करके द्रव्य में पर्यायों का नित्य ही सम्बन्ध नहीं है, अतः विशेष पर्यायों का कदाचित् कदा. चित् होना ही सिद्ध है । प्रास्मा में चेतना गुण नित्य विद्यमान है, हां चेतना गुण के परिणाम घटज्ञान पटज्ञान, श्र तज्ञान, चक्षुदर्शन आदि तो कदाचित् ही होते हैं, पर्यायें सदा अवस्थित नहीं रहती हैं, अतः गुणों वाला और पर्यायोंवाला द्रव्य होता है, यह द्रव्य का निर्दोष लक्षण है।
किमर्थमिदं पुन द्रव्यलक्षणं ब्रवीतीत्यारेकायामाह ।
कोई जिज्ञासु पूछता है, कि सूत्रकार महाराज द्रव्य के इस लक्षण को फिर किस प्रयोजन के लिये स्पष्ट कह रहे हैं ! इस प्रकार आशंका प्रवर्तने पर ग्रन्थकार श्रीविद्यानन्द सूरि अगली वात्तिक द्वारा समाधान करते हैं।
गुणपर्ययवद्रव्यमित्याह व्यवहारतः। सत्पर्यायस्य धर्मादेव्यत्वप्रतिपत्तये ॥ १ ॥